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________________ साहित्यिक शासन किया---यह उसके अदभ्य उत्साह का ही परिणाम था । वे प्रकृति के नियमो की भाँति अटल थे। शैशव से लेकर स्वर्गवाम तक उनका सम्पूर्ण जीवन प्रतिकल परिस्थितियों के विरुद्ध एक घोर संग्राम था। मतभेदों, विरोधी, प्रतिद्वंद्वियों और आपत्तियों की श्रॉधी, बवंडर और तूफान उन्हें उनके प्रशस्त पथ से तनिक मी डिगा न सके । तन के अस्वस्थ रहने पर भी उनका मन सदा स्वस्थ रहा । दीनतारहित स्वावलम्बन,श्राजीवन हिंदी मेवा के व्रत का निर्वाह, 'अनस्थिरता' श्रादि वादों में अपनी बात को अकाट्य सिद्ध करने, का सफल प्रयास, न्याय,सत्य और लोककल्याण के लिये निजी हानि और कष्टों की चिन्ता न करना आदि बाते उनके संकल्पपालन और अप्रतिम प्रतिभा की द्योतक हैं ! वे अकर्मण्यता के कट्टर शत्रु थे । ढीले ढाले व्यक्तियों को तो बहुधा अप्रसन्न द्विवेदी की फ्टकार सहनी पडती थी । माता, पिता, पत्नी आदि अनेक सम्बन्धियों की मृत्यु का वज्रपात हुअा, परन्तु द्विवेदी जी ने संसार के सामने अपना रोना नही रोया । कितनी ही आधि-व्याधियों ने उन्हें निपीडित किया तथापि उन्होंने साहित्य-सेवा को क्षति नहीं पहुंचने दी । सारी वंदनायो को धैर्य और उत्साह से सहा । उनके व्यक्तिगत और सार्वजनिक कार्यो, साहित्यिक और धार्मिक वादो को लेकर लोगों में उन्हें न जाने क्या-क्या कहा, गालियाँ तक बी । द्विवेदी जी हिमालय की भॉति अप्रभावित और अचल रहे । जहाँ आवश्यक समझा,सत्य और न्याय की रक्षा के लिये प्रतिवाद किया, अन्यथा मौन रहे । 'कालिदास की निरंकुशता'-विषयक विवाद के सम्बन्ध में द्विवेदी जी ने राय कृष्णदास को लिखा था---'मैं तो प्रतिवादों का उत्तर देने से रहा । आप उचित समझे तो किमी पत्र में दे सकते है । बदरीनाथ गीता-वाचस्पति को लिखा गया पत्र उनकी सहिष्णुता की विशेष व्यंजना करता है .."मेरी लोग निन्दा करते हैं या स्तुति, इस पर मैं कभी हर्ष, विषाद नहीं करता। आप भी न किया कीजिए । मार्गभ्रष्ट कभी न कभी मार्ग पर आ ही जाते हैं । मेरा किसी से द्वेप नहीं, न लखनऊ के ही किसी सन्नन से, न और ही किसी से । उम्र थोड़ी है । वह द्वेष और शत्रुभाव प्रदर्शन के लिए नहीं। मैं सिर्फ इतना करता हूँ कि जो मेरे हृद्त भावा को नहीं समझते, उनमे दूर रहता हूँ।” २ द्विवेदी जी सस्ती ख्याति के भूखे न थे । इसी कारण हिन्दी-साहित्य-सम्मलन,अभिनन्दन, १. २६, ६. ११ को लिखित, 'सरस्वती', नवम्बर, १६४४ ई० । २२११११४ को सिसित सरस्वती मई सन् १९१०ई०
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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