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________________ 1 से मुक्ति पाने का प्रयास न करने व ले देशवासियों की भसना की गई अन्धकारमय वर्तमान के कलंक दृश्य दिग्वाकर ही पीडित जाति को सतोप नहीं हुआ । क्षुब्ध मन को श्राश्वासन देने तथा कल्पित श्रानन्द लेने के लिए द्विवेदी युग के कवियों ने भारत का प्रेम पुरस्सर गौरव गान किया। यह राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति का दूसरा रूप था । इस रूप के चार प्रधान प्रकार थे। कही तो भारत के श्रातीत वैभव और महिमा के उज्ज्वल चित्र अंकित किए गए, कहीं देवी-देवता के रूप में उसकी प्रतिष्ठा की गई, कही देश के प्राकृतिक मनोहर दृश्यों का चित्रण किया गया और कही सीधे शब्दों में देश के प्रति अतिशय प्रेम का प्रदर्शन हुआ ।" ૨ ३ यथा: ४. यथा: ५. यथा: जान में, मान में, शक्ति से हीन हो दान में, ध्यान से, भक्ति से हीन हो । आलसी भी महामूढ प्राचीन हो, सोच देखा सभी मे तुम्ही दीन हो । अंग को मिमोत रहो, क्यो जगोगे अभी देश सोते रहो || रामचरित उपाध्याय --- सर०, मार्च, २६१६ ई०, पृ० १६० । जगत ने जिसके पद थे छुए, सकल देश ऋणी जिसके हुए । ललित लाभ कला सब थी जहां, अब हरे वह भारत है कहाँ ? > मैथिलीशरण गुप्त - सर० भाग ११ संख्या १ । नीलाम्बर परिधान हरित पट पर सुन्दर है। सूर्य चन्द्र युग मुकट मेखला रत्नाकर है । नादिया प्रेमप्रवाह फूल तारे मंडन हैं बन्टीजन खगवृन्द शेषफन सिहासन है । करते श्रमिक पयोद हैं, बलिहारी इस वेप की हे मातृभूमि ! तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की ॥ " , मैथिलीशरण गुप्त - 'भारत-गीत ।' जिसके तीनो ओर महोदधि रत्नाकर है । उत्तर में हिमराशि रूप सर्वोच्च शिखर हैं | जिसमें प्रकृति विकास रम्य ऋतुक्रम उत्तम है ! जीव जन्तु फलफूल शस्य अद्भुत अनुपम है | पृथ्वी पर कोई देश भी इसके नहीं समान है । इस दिव्य देश में जन्म का हमे बहुत अभिमान है || रामनरेश त्रिपाठी- सर० भाग १५, संख्या ११ पुण्य भूमि है, स्वर्गभूमि है, जन्मभूमि है देश यही । इससे बढ़कर मा ऐसी ही दुनिया में है जगह नहीं पाढेष - सर० भाग १४ स० ६
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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