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________________ । २६६ । दाशनिक कवियां ने ईश्वर को किसी मन्दिर या अवतार म न देखकर और मावना ये संकुचित धेरे से निकाल कर विराट रूप में उसका दर्शन किया जिस मंदिर का द्वार सदा उन्मुक्त रहा है । जिस मंदिर मे रंक नरेश समान रहा है ।। जिसका है श्राराम प्रकृति कानन ही माग। जिस मंदिर के दीप इंदु, दिनकर श्री तारा ।। उस मंदिर के नाथ को निरुपम निर्मम स्वस्थ को । नमस्कार मेरा सदा पूरे विश्व गृहस्थ को ॥ अवतारी और देवी-देवताओं, राजाओ तथा अन्य ऐतिहासिक महापुरुषों, कल्पित नायक-नायिकानो और प्रेम-कथानों आदि का वर्णन करते २ हिन्दी-कवि थक गए थे। इसी समय प्राचार्य द्विवेदी जी ने उन्हें विषय-परिवर्तन का आदेश किया। उनके युग के कवियों की दृष्टि परम्परागत स्थान पर ही केन्द्रिन न रह सकी और उन्होंने असाधारण मानवता तथा देवता से आगे बढ़कर सामान्य मानव समाज को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया। भारतेन्दु-युग ने भी सामाजिक कुरीतियों पर आक्षेप किया था और कहीं कहीं दलितों के प्रति सहानुभूति भी दिखाई थी। किन्तु वह प्रगति अपेक्षाकृत नगण्य थी। कवि द्विवेदी की भाति उनके युग के कवियो की सामाजिक भावनाएं भी चार रूपों मे व्यक्त हुई ममाज के सन्तत वर्ग के प्रति सहानुभूति, समाज को कुरीतियों से बचने और सन्मार्ग पर चलने का स्पष्ट उपदेश, उसकी बुराइयों का ब्यंग्यात्मक उपहास तथा पतनोन्मुग्नु समाज की, उमकी बुराइयों के कारण, कठोर भर्सना । महानुभूति के प्रधानपात्र अऋत, किसान, मजदूर, अशिक्षित नारिया, विधवा, भिक्षुक श्रादि हुए १२ किसान और मजदूर की ओर विशेष ध्यान दिया । द्विवेदी जी ने 'अवध १. 'नमस्कार'-जयशंकर प्रसाद, इंदु कला ४, मंद २, पृ. ।। २. उदाहरणार्थ (क) ग्वपाया किए जान मजदूर, पेट मग्ना पर उनका दूर । उड़ाते माल धनिक भर पूर, मलाई लड्डू, मोतीचूर ॥ मुधरने मे है जा के देर, अभी है बहुत बड़ा अंधेरा ॥ अन्नदाना है धीर किसान, सिपाही दिखलाते हैं ज्ञान । डराते उन्हें तमाचा तान, तुम्हे क्या सूझी हे भगवान ! श्रावले बट्टे मीठे बेर ! किया है क्यों ऐसा अन्धरा ? मनेहा मय भाग १५ सख्या ५ पृष्ठ ४६
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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