SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २४५ परिशिष्ट संख्य ५ म दा लई संशोधित लेख की प्रतिनिपि उनक मशोधन कार्य की और भी स्पष्ट कर देगी। स्वयं श्रान्त हो जाने पर वे मैथिलीशरण गुप्त आदि के द्वारा 'सरस्वती' को की भ्रष्ट मापा का सुधार करते थे । इसकी चर्चा 'सरस्वती-सम्पादन' अध्याय में हो चुकी है । श्राचार्य द्विवेदी जी पत्री और सम्भाषणों में नी भाषा-संस्कार का उद्योग करते थे । एक बार मैथिलीशरण गुन की 'कोमाष्टक' तुकबन्दी पर क्षुब्ध होकर उन्हें पत्र में लिखा "हम लोग सिद्ध कवि नही । बहुत परिश्रम और विचारपूर्वक लिने ने ही हमारे पढने योग्य बन पाते हैं। आप दो बातों में से एक भी नहीं करना चाहते हैं । कुछ लिख कर उसे छपा देना ही आपका उद्देश्य जान पड़ता है । आपने 'कोष्टक थोड़े ही समय मे लिखा होगा, परन्तु उसे ठीक करने के हमारे चार घंटे लग गये। पहला ही पद्म लीजिये - होवे तुरन्त उनकी बलहीन काया जानें न वे तनिक भी अपना पराया हावे विवेक र बुद्धि विहीन पर रेकी, जोजन करें तुमको कदापि आप को को आशीर्वाद दे रहे है जो आपने ऐसी क्रियाओं का प्रयोग किया ? इसे हम अवश्य 'मरस्वती में छापेंगे परन्तु आगे से आप मरस्वती के लिए लिखना चाहें ता इधर-उधर अपनी कविताएं छापने का विचार छोड दीजिए। जिस कविता को हम चाहे उसे छायेंगे | जिने न चाहे उसे न कही दूसरी जगह छपाइए, न किसी को दिखाइए । ताले मे बन्द करके रखिए " 1 पंडित विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक की तीन-चार कहानिया तथा लेख प्रकाशित करने के बाद एक बार वार्तालाप के सिलसिले में द्विवेदी जो ने उनसे कहा- ' 'मरस्वती' व्यान में नहीं पढ़ते । पढते हा तो 'सरस्वती' की लेखन शैली की श्रर आपका ध्यान अवश्य जाता । 'सरस्वती' की अपनी निजी लेग्नन शैली है। वह में आप को बताता हूँ | देखिये लेने के अर्थ में जब लिये शब्द लिखा जाता है तब यकार से लिखा जाता है और जब विनक्ति के रूप में खाता है तब एकार मे लिखा जाता है। जा " सरस्वती भाग ४ स. २ प्र २००
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy