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________________ १७० । था। दिसम्बर १८१३ ई० म कशवप्रमाद मिश्र की मुदामा' शीप के लम्बी तुका दीम उम दोषो का निर्देश और उन्हे दूर कर कहीं अन्यत्र छपा लेने का आदेश किया ।' मैथिलीशरगा गुप्त की भी पहली कविता 'शरद' अस्वीकृत हुई, परन्तु दूसरो कविता 'हेमन्त' को उचित मशोधन और परिवर्धन के साथ 'सरस्वती' में स्थान मिला ।' उनका यह व्यवहार मी लेखका के प्रति था। वे रचनाओं में नामूल परिवर्तन करत, शीर्षक तक बदल देते थ । अप्रत्याशित संशोधनो के कारण मिथ्याभिमानी असंतुष्ट लेखक डाँटकर पत्र लिखते और द्विवेदी जी अत्यन्त विनम्र शब्दों में क्षमा मागने, उन्हें समझाते-बुझाते थे। उनके सपादकीय शिष्टाचार और स्नेहपूर्ण व्यवहार में लेखकों के प्रति शालीनता, नम्रता भार खुशामद की सीमा हो जाती। यह संपादक द्विवेदी का गौरव था। सच्ची लगन, विस्तृत अध्ययन, सुन्दर शैली और सज्जनोचित मकोच बाले लेखको का उपहास न करके वे उन्हें उ माहित करते और गुरुवत् स्नेह तथा सहानुभूति से उनके दोषो को समझाते थे । जिन लेग्वक को लिखना श्रा जाता रमे 'सरस्वती' निःशुल्क भेजते और योग्यतानुमार पुरस्कार भी देते थे । लक्ष्मीधर वाजपेयी के 'नाना फडनवीस' नामक विस्तृत लेग्व को अत्यन्त परिश्रम में काटछॉट कर पाठ पृष्ठी में छापा और भोलह रुपया पुरस्कार भी भेज दिया । आदर्श मपादक द्विवेदी जी अपने लघु लेख को पर भी कृपा रग्बते थे। द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' को व्यक्ति विशेष या वर्ग-विशेष को संतुष्ट करने का मा-न नहा बनाया। उन्होंने ग्राहक समुदाय को स्वामी, और अपने को मेवक समझा । 'सरस्वती' का उद्देश्य था अपने समस्त पाठको को प्रसन्न तथा लाभान्वित करना । द्विवी जी ने जानवर्धक और मनोरंजक रचनायो का की तिरस्कार नहीं किया । कितने ही यश और धन के लोलुप स्वार्थान्ध महानुभाव अपनी या अपने स्वामियों की असुन्दर, अनुपये गी और नीरम रचनाएं चित्र एवं जीवन चरित छपाने की अनधिकार चेष्टा करते थे। कितना की भाषा इतनी लचर, क्लिष्ट और दूपित होती थी कि उसका मंशोधन ही असम्भव होता था । कठोर कर्तव्य द्विवेदी जी को उनका तिरस्कार करने के लिए बाध्य करता था। ये महानुभाव अस्वीकृत रचनाओं को वापस मंगाने के लिए टिकट तक न भेजते, महीनी बाद उनकी खोज लेने और धमकिया तथा कुत्मापूर्ण उलाहने भेजकर अपना एवं मम्पादक का ममय व्यर्थ नष्ट करते थे। द्विवेदी जी व्यक्तिगत पत्र या सांवत्सरिक सिंहावलोकन', १ 'सरस्वनी', भाग ४०. सं० २, पृ० १६६. २. 'सरस्वती', भाग ४०, सं० २. पृ० १६ ३. 'सरस्वती', भागे ४० सं० २, पृ० १४६; 'द्वि. मी,' ५२-५३, . सरस्वती', माग ४० म. २ पृ १३॥ * बेखकों स प्रार्थना मरम्पती मां 16 बा २ २ ३ के आधार पर
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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