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________________ कविता म तत्कालान समाज का विशेषताश्नों को निरखा है, 'कालिदास की वैवाहिकी कविता 'कालिदास की कविता मे चित्र बनाने योग्य स्थल' और 'कालिदास के मेघदूत का रहस्य' में द्विवेदी जी के सहृदय कविहृदय का प्रतिविम्ब है । यह तीसरा निबन्ध तो द्विवेदी जी के हृदय का भी रहस्य है । इसमें प्रेमी-हृदय के विश्लेषण और व्याख्या के रूप में द्विवेदी जी ने अपने ही प्रेमी हृदय की अभिव्यक्ति की है । प्रेम के संसार से गहरा परिचय होने के कारण ही उनकी लेखनी में अनायास ही प्रेम की सुन्दर व्याख्याएँ निकल पडी हैं । १ प्रेम की कठिनाइयों और कठोरताओं का भोगी होने के कारण ही उनका हृदय यक्ष के हृदय के समान अनुभूति कर सका है। प्रेम की नीयता और प्रेमयोग को लेकर साहित्य म बहुत कुछ लिखा जा चुका है किन्तु सात्विकता, निर्मलता, अमायिकता और भोलेपन से प्रतिमांत द्विवेदी जी के प्रेमी हृदय का यह स्वर निराला है । संस्कृत साहित्य पर द्विवेदी जी के द्वारा की गई, आलोचनाओं के मूल में तीन प्रधान कारण थे-पुरातन्त्रसम्बन्धी अनुसन्धान में निरत वह युग, रह रह कर अतीत की ओर देखने वाला द्विवेदी जी का व्यक्तित्व और हिन्दी काव्यों की आलोचना द्वारा हिन्दीलेखकों की दृष्टि व्यापक बनाने की चन्तवती आकाक्षा | संस्कृत को लेकर आलोचना की जो शुदला द्विवेदी जी ने चलाई वह उन्ही के साथ लुप्त हो गई। उनके विश्राम ग्रहण करने पर हिन्दीश्रालोको के लोचनों में अनेक वादी का मद छा गया। इसकी समीक्षा 'युग और व्यक्तित्व' अध्याय में यथास्थान की जायगी । द्विवेदी जी की आलोचनाओं की धारा संस्कृत और हिन्दी के कुलयुग्म में वही है । संस्कृत विषयो की आलोचना करते समय हिन्दी को और हिन्दी - विषयों की आलोचना करते समय संस्कृत को वे नहीं भूले हैं । 'हिन्दी कालिदास की समा लोचना' हिन्दी - पुस्तक की आलोचना होते हुए भी संस्कृत से प्रभावित है । यह ऊपर सिद्ध किया जा चुका है। 'नैपधचरित', 'विक्रमाकदेवचरित', कालिदास आदि की आलोचनाएँ संस्कृत की होने पर भी हिन्दी के लिए लिखी गई है। ८ 'हिन्दी शिक्षावली तृतीय भाग की समालोचना' का प्रारम्भ भर्तृहरि की 'अहो ! कष्टं मापि प्रतिदिनमधोधः प्रविशति पंक्ति से होता है । इस उक्ति में छिपी कष्टभावना उनकी सभी खंडनप्रधान आलोचनाओ के मूल में है। 'भाषादोप', 'कवितादोप', 'मनुस्मतिप्रकरणदीप', 'सम्प्रदायदोप', 'व्याकरणदोष', 'स्फुटदोष' - दोषदर्शन में ही पुस्तक की समाप्ति हुई है । द्विवेदी जी को इस बात का दुख है । हिन्दी पाठकों और लेखकों के कल्याण के लिए ही १. 'कालिदास और उनकी कविता', पृ १३०, १३१, १३६. १३७, १३८ । उपर्युक पृष्ठों के अतिरिक्त १२२, १२७ १२८, १२६, १३ ४३६ १३२ १३३ १३४ }
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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