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________________ [ १२५ ] प्राचीन 3 और कवि 'सुविसद्धीतन आदि इसी प्रकार की आजोचना - पुस्तकें हैं संस्कृत साहित्य में रचना की व्याख्या में रचनाकार को कोई स्थान नहीं दिया गया था । इसका कारण या उन आलोचकों का दृष्टिभेद । वे अर्थ की व्याख्या करने चले जाते थे और जहा प्रयोजन समझते थे, न्यूनाधिक आलोचना भी कर देते थे । उन आलोचको के समक्ष एक ही प्रश्न था -- श्रालोच्य वस्तु क्या है ? उसके रचनाकार तक जाना उन्होंने निष्प्रयोजन समझा । द्विवेदी जी ने रचयिताओं की आलोचनाद्वारा उनकी कृतियों से भी पाठको को परिचित कराया । उपर्युक्त रचनाओं के अतिरिक्त 'अश्वघोषकृत सौन्दरानन्द', ' 'महाकवि भास के नाटक' 3 वेबटेश्वर प्रेस की पुस्तके', 'गायकवाड़ की प्राच्यपुस्तकमाला ४ यादि फुटक्ल लेख भी इसी कोटि में हैं । १ 3 पूर्ववर्ती समीक्षकों से असहमत होने के कारण उनके परवर्ती थालोचकों ने तर्कपूर्ण युक्तियों के द्वारा दूसरों के मत का खडन और अपने विचारों का मंडन करने के लिए शास्त्रार्थ पद्धतिलाई । इन ग्रास्तोको ने विपक्ष के दोपों और अपने पक्ष के गुणों को ही देखने की विशेष चेष्टा की । कहीं तो समीक्षक ने तटस्थभाव मे ईर्ष्यामत्सरादिरहित होकर सूक्ष्म विवेचन किया, यथा श्रानन्दवर्द्धन ने 'व्वन्यालोक' के तृतीय उद्योत में और मम्मद ने 'काव्यप्रकाश' के चतुर्थ और पंचम उल्लास में । कहीं पर उसने गर्व के वशीभूत होकर पूर्व - वर्ती आचार्यो के सिद्धान्तो का खंडन और अपने विचारों का मंडन किया यथा पंडितराज जगन्नाथ ने 'रसगंगाधर में और कहीं पर उसने शत्रुभाव से विपक्ष का सर्वनाश करने की चेष्टा की । इस दृष्टि से महिमभट्ट का व्यक्ति-विवेक' अत्यन्त रोचक और निराला है । आधुनिक हिन्दी के त्रालोचना-साहित्य में भी 'बिहारी और देव', 'देव और विहारी' आदि पद्धति पर की गई रचनाएं ह । ; 'चरित और चरित्र' अध्याय में यह कहा जा चुका है कि किसी विषय मे विवाद उपस्थित * जाने पर द्विवेदी जी अपने कथन को पाहिल और तर्क के बल से अकाट्य प्रमाणित करके ही छोड़ते थे । श्रालोचनाक्षेत्र में भी उनकी यह विशेषता कम महत्वपूर्ण नही है । 'नैषधचरितचर्चा और सुदर्शन', ' 'भद्दी कविता', ' 'भाषा और व्याकरण', ७ 'कालिदाम की 'सरस्वती', १६१३ ई०, पृ० २८० । २, 'सरस्वती", १९१३ ई० ३ १६१७ ई०, १६१६ ३०, 52 " 31 0 ६३ । ४. 93 ५. 'सरस्वती', १९०६ ई०, १६०६ है ० 22 ,, १४०, १६७, २६३ । १६३ । ३४१ । 25 ३०३ / ६०
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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