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________________ ने स्थान स्थान पर शास्त्रीय दृधि से उनकी बर कुछ यान || की है यः । नन्दी प्रस्ता गना, सन्धिया, सन्ध्यगा आदि के अवसरों पर । व्याकरण, दर्शन श्रादि काव्यतर विषयो की आलोचना पति और विशद हुई, उदाहरणार्थ पंतजलि का 'महाभाष्य', 'श'करभाष्य' आदि । इस पद्धतिकी विशेषता अर्थव्याख्या के साथ साथ रस, अलङ्कार श्रादि के निर्दशन मे है । हिन्दी में 'मानसपीयूष', पद्मासहशर्मा की 'बिहारी-सतमई', जगन्नाथदाम का 'बिहारी-रत्नाकर' आदि इसी कोटि की कृतियाँ हैं । हिन्दी के श्रेष्ठ समालोचक रामचन्द्र शुक्ल भी अपनी अालोचनाओं के बीच बीच में इस पद्धति पर चले बिना नहीं रह सके है।' __केवल हिन्दी जानने वालों को 'भागिनी-विलास' आदि की काव्यमाधुरी का अाम्वाद कराने के लिए द्विवेदी जी ने उनके हिन्दी-भाषान्तर प्रस्तुत किए। उन अनुवादा में मालोचनात्मक टीकापद्धति की कोई विशेपता नहीं है । संस्कृत-टीकापद्धति का उद्देश था सरल वर्णनात्मक शैली में पाठको को भालोचित ग्रथ के अर्थ और गुणदोपका ज्ञान कराना । इस उद्देश और शैली के अनुकूल चलने वाली द्विवेदीकृत अालोचना में हम इस पद्धति के तीन विक्रमित या पारेवर्तित रूप पाते हैं। पहला रूप है उनके द्वारा की गई काव्य-चर्चा | २ 'नेपधचरितच ' और 'विक्रमाकदेवचरितचर्चा' मे 'नैपधचरित' और 'विक्रमाकदेवचरित' की परिचयात्मक आलोचना है । काव्य के रचयिता और कथा के परिचय के माथ कही कहो कवित्वमय मुन्दर स्थलो की व्याख्या भी की गई। 'कालिदास की वैवाहिका कविता' ३ 'कालिदाम की कविता में चित्र बनाने योग्य स्थल'४ श्रादि व्याख्यात्मक आलाचनाएं संस्कृत-टोकापद्धति के अधिक ममोप है ! दूमरा रूप है 'सरस्वती' में प्रकागित पुस्तक-परिच य । इसमे संस्कृत टीकापद्धति की भाति पदगत अर्थ या गुणदोपविवेचन अालोचक का लक्ष्य नहीं है । पुस्तक की परीक्षा व्यापक रूप में की गई है। द्विवेदीलिखित व्याख्यात्मक आलोचना के तीसरे रूप में साहित्यकारों की जीवनिया है । 'कोविदकीतन ५ 'भ्रमरगीतसार' की भूमिका में सूर की आलोचना । २. "संस्कृत ग्रन्थों की समालोचना हिन्दी में होने से यह लाभ है कि समालोचित ग्रन्यो का सारांश और उनके गुणदोप पढ़ने वालों को विदित हो जाते है। ऐसा होने से सम्भव है कि संस्कृत में मूल अन्यों को देखने की इच्छा से कोई कोई उस भाषा का अध्ययन करने लगे, अथवा उसके अनुवाइ देखने की अभिलाषा प्रकट करें । अथवा यदि कुछ भी न हो, संस्कृत का प्रेममात्र उनके हृदय में ग्रंकुरित हो उठे, तो इसमें भी थोड़ा बहुत लाम अवश्य ही है।" 'विक्रमांकदेवचरितचर्चा', प० । ३. 'सरस्वती', जुन. १६०५ ई० } * मास्वती एप्रिल १११ ई.
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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