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________________ L ४२२ स्प सदेश दिया था रस, भान, अलङ्कार छद शास्त्र और नायिकाभेद समाननाति का बहुत ही कम उपकार हो सकता है उसका त्याग यावश्यक है इस प्रकार का साहित्य समाज की दुर्बलता का चिन्ह है । इसके न होने से साहित्य का लाभ होगा ।' लोक्-रुचि के अनुसार सहज मनोहर काव्य रचना की अपेक्षा है जिससे जनता में नवीन कविता के प्रति अनुराग उत्पन्न हो | नवीन भाव-विचार को लेकर कल्पित अथवा सत्य श्राख्यान के द्वारा सामाजिक, नैतिक यादि विषयों पर काव्य- निबन्धना होनी चाहिए। आलोचना के विषय में भी द्विवेदी जी के विचार निश्चित थे । 'हिन्दी कालिदास' की समालोचना में उन्होंने सुबन्धु की ' वासवदत्ता' के निम्नांकित श्लोक को उद्धत करके आलोचना के अर्थ और प्रयोजन की ओर संकेत किया था -- 4 गुणिनामपि निजरूपय तिपत्तिः परत एव संभवति । स्वमहिमदर्शनमक्ष्णोमु कुरकरतले जायते यस्मात् ॥ अपने इस विचार को उन्होंने 'कालिदास और उनकी कविना मे स्पष्ट किया है- 1 " कवि या अन्थकार जिम मतलब से ग्रन्थरचना करता है उससे सर्वसाधरण को परिचित कराने वाले आलोचक की बड़ी ही जरूरत रहती है। ऐसे समालोचको की समालोचना से साहित्य की विशेष उन्नति होती है और कवियों के गूढाशय मामूली ग्रादमियों की सम मे जाते हैं । कालिदास की शकुन्तला, प्रियम्वदा और अनसूया में क्या भेद है ? उनके स्वभावचित्रण में कचि ने कौन कौन सी खूबिया रक्खी है ? उनमें क्या क्या शिक्षा मिलती है ? ये बातें सत्र लोगों के ध्यान मे नही आ सकती अतएव वे उनसे लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं । इसे थोडी हानि न समझिए । इससे कवि के उद्देश का अधिकाश ही व्यर्थ जाता है। योग्य समालोचक समाज को इस हानि से बचाने की चेष्टा करता है । इसी से साहित्य मे उसका काम इतने चादर की दृष्टि से देखा जाता है - इसी से साहित्य की उन्नति के लिए उसकी इतनी अवश्यकता है ।२ परम्परागत भारतीय समालोचनाप्रणाली के भक्त होते हुए भी द्विवेदी जी ने पाश्चिमात्य नवीन प्रणाली के गुणों को अपनाया। दोपदर्शन को उन्होंने बुग नहीं समझा । उनका कथन है कि समालोचक को न्यायाधीश की माति निष्पक्ष और निर्भय होना पडता है । सन् समालोचक को बड़े बड़े कवि, विज्ञानवेत्ता, इतिहास-लेखक और वक्ताओ की कृतियों पर १. ' रसज्ञरंजन', 'नायिकाभेद', पृष्ठ ६२ के आधार पर | २. 'कालिदास और उनकी कविता', पृ० १३ | ३ प्राचीन कवियों क काव्या में + पृ० ३
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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