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________________ २८ महावीरका सर्वोदयतीर्थ उसमें कहीं-कहीं शैवाल उत्पन्न हो गया है उसे निकालकर दूर किया जाय और सर्वसाधारणको इस तीर्थ के महात्म्यका पूरा-पूरा परिचय कराया जाय । ऐसा होनेपर अथवा इस रूपमें इस तीर्थका उद्धार किया जानेपर आप देखेंगे कि देश-देशान्तरके कितने बेशुमार यात्रियोंकी इसपर भीड़ रहती है, कितने विद्वान् इसपर मुग्ध होते हैं, कितने असंख्य प्राणी इसका आश्रय पाकर और इसमें अवगाहन करके अपने दुःख -संतापोंसे छुटकारा पाते हैं और संसार में कैसी सुख शान्तिकी लहर व्याप्त होती है । स्वामी समन्तभद्रने अपने समय में, जिसे आज १८०० वर्षके लगभग हो गये हैं, ऐसा ही किया है और इसीसे कनड़ी भाषा के एक प्राचीन शिलालेख * में यह उल्लेख मिलता है कि 'स्वामी समन्तभद्र भगवान् महावीरके तीर्थकी हजारगुनी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए' अर्थात् उन्होंने उसके प्रभावको सारे देशदेशान्तरोंमें व्याप्त कर दिया था। आज भी वैसा ही होना चाहिये । यो भगवान् महावीर की सच्ची उपासना, सची भक्ति और उनकी सची जयन्ती मनाना होगा । महावीरके इस अनेकान्त-शासन-रूप तोर्थमें यह खूबी खुद मौजूद है कि इससे भरपेट अथवा यथेष्ट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी यदि समष्टि ( मध्यस्थवृत्ति ) हुआ उपपत्ति - चतुसे ( मात्सर्यके त्यागपूर्वक युक्तिसंगत समाधानकी दृष्टिसे) इसका अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य हो उसका मान-शृङ्ग खण्डित * यह शिलालेख बेलूर ताल्लुकेका शिलालेख नम्बर १७ है, जो रामानुजाचार्य-मन्दिर के अहातेके अन्दर सौम्यनाथको मन्दिरकी छतके एक पत्थर पर उत्कीर्ण है और शक सम्वत् १०५६ का लिखा हुआ है । देखो, एपिनेफिका कर्णाटिकाकी जिल्द पांचवीं अथवा 'स्वामी समन्तभद्र' पृष्ठ ४६ अथवा समीचीन धर्मशास्त्रकी प्रस्तावना पृष्ठ ११३ ।
SR No.010412
Book TitleMahavira ka Sarvodaya Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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