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________________ सर्वोदय तीर्थ लिए यह शासन सचमुच ही 'सर्वोदयतीर्थ' के पदको प्राप्त इस पद के योग्य इसमें सारी ही योग्यताएँ मौजूद हैं-- हर कोई भव्य जीव इसका सम्यक् आश्रय लेकर संसारसमुद्रसे पार उतर सकता है । २७ परन्तु यह समाजका और देशका दुर्भाग्य है जो आज हमने - जिनके हाथों दैवयोग से यह तीर्थ पड़ा है - इस महान् तीर्थकी महिमा तथा उपयोगिताको भुला दिया है, इसे अपना घरेलू, क्षुद्र या सर्वोतीर्थका मा रूप देकर इसके चारों तरफ ऊँचीऊँची दीवारें खड़ी कर दी हैं और इसके फाटकमें ताला डाल दिया है | हम लोग न तो खुद ही इससे ठीक लाभ उठाते हैं और न दूसरोंको लाभ उठाने देते हैं- - मात्र अपने थोड़ेसे विनोद अथवा क्रीड़ाके स्थल रूप में ही हमने इसे रख छोड़ा है और उसका यह परिणाम है कि जिस 'सर्वोदयतीर्थ' पर दिन-रात उपासकों की भीड़ और यात्रियोंका मेला-सा लगा रहना चाहिये था वहाँ आज सन्नाटासा छाया हुआ है, जैनियोंकी संख्या भी अंगुलियों पर गिनने लायक रह गई है और जो जैनी कहे जाते हैं उनमें भी जैनत्वका प्रायः कोई स्पष्ट लक्षण दिखलाई नहीं पड़ता - कहीं भी दया, दम, त्याग और समाधिकी तत्परता नजर नहीं आती -- लोगों को महावीरके सन्देशकी ही खबर नहीं, और इसीसे संसारमें सर्वत्र दुःख ही दुःख फैला हुआ है । ऐसी हालत में अब खास जरूरत है कि इस तीर्थका उद्धार किया जाय, इसकी सब रुकावटों को दूर कर दिया जाय, इसपर खुले प्रकाश तथा खुली हवाकी व्यवस्था की जाय, इसका फाटक सबके लिये हर वक्त खुला रहे, सभी के लिये इस तीर्थ तक पहुँचनेका मार्ग सुगम किया जाय इसके तटों तथा घाटोंकी मरम्मत कराई जाय, बन्द रहने तथा अर्से तक यथेष्ट व्यवहारमें कारण तीर्थजल पर जो कुछ काई जम गई है अथवा
SR No.010412
Book TitleMahavira ka Sarvodaya Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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