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________________ महावीरका सर्वोदयवीर्थ सरणकी भूमिमें प्रवेश करते ही भगवान् महावीरके सामीप्यसे जीवोंका वैरभाव दूर हो जाता था, क्रूर जन्तु भी सौम्य बन जाते थे और उनका जाति-विरोध तक मिट जाता था। इसीसे सर्पको नकुल या मयूरके पास बैठनेमें कोई भय नहीं होता था, चूहा बिना किसी संकोचके बिल्लीका आलिंगन करता था, गौ और सिंही मिलकर एक ही नाँदमें जल पीती थीं और मृग-शावक खुशीसे सिंह-शावकके साथ खेलता था। यह सब महावीरके योगबलका माहात्म्य था। उनके आत्मामें अहिंसाको पूर्ण प्रतिष्टा हो चुकी थी, इसलिये उनके संनिकट अथवा उनकी उपस्थितिमें किसीका वैर स्थिर नहीं रह सकता था। पतंजलि ऋषिने भी, अपने योगदर्शन में, योगके इस माहात्म्यको स्वीकार किया है। जैसा कि उसके निम्न सूत्रसे प्रकट है: अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥३॥ महावीर भगवानने प्रायः तीस वर्ष तक लगातार अनेक देशदेशान्तरोंमें विहार करके सन्मार्गका उपदेश दिया, असंख्य प्राणियोंके अज्ञानान्धकारको दूर करके उन्हें यथार्थ वस्तु-स्थितिका बोध कराया, तत्त्वार्थको समझाया, भूलें दूर की, भ्रम मिटाए, कमजोरियाँ हटाई, भय भगाया, आत्मविश्वास बढ़ाया, कदाग्रह दूर किया, पाखण्डवल घटाया, मिथ्यात्व छुड़ाया, पतितोंको उठाया, अन्याय-अत्याचारको रोका, हिंसाका विरोध किया. साम्यवादको फैलाया और लोगोंको स्वावलम्बन तथा संयमकी शिक्षा दे कर उन्हें आत्मोत्कर्षके मार्ग पर लगाया । इस तरह आपने लोकका अनन्त उपकार किया है और आपका यह विहार बड़ा ही उदार, प्रतापी एवं यशस्वी हुआ है। ___ महावीरका यह विहारकाल ही प्रायः उनका तीर्थ-प्रवर्तन-काल है, और इस तीर्थ-प्रवर्तनकी वजहसे ही वे 'तीर्थकर' कहलाते हैं।
SR No.010412
Book TitleMahavira ka Sarvodaya Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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