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________________ 82 महावीर का जीवन संदेश चाहते तो मेरा बहिष्कार कर सक्ते थे। मैने हरिजनो के साथ भोजन करने की बात उनके सामने कबूल की, तो कुछ भाई वोल उठे "बैठो, बैठो। हम पूछने आये तव तुम ऐसी बाते हमसे कहना।" इसी रुख के समर्थन में एक वृद्ध पुरुप ने कहा - "कोई वडा अमीर आदमी होता है तब तो उसका बहिष्कार करने की हम बात भी नहीं करते । दभी आदमी समाज मे पाखड चलाते है, लेकिन हम उन्हें अपने शिकजे मै पकड नही सकते । तब यदि एकाध मन के शुद्ध और सज्जन आदमी का ही हम वहिष्कार करे तो क्या यह हमें शोभा देगा? ऐसा करने से समाज का कल्याण भी नही होगा । इनके जैसे लोग रूढ आचार को जरूर तोडते है, परन्तु वे अनाचार नही करते । इसलिये जाति उनके खिलाफ हो जाय, तो भी उनकी प्रतिष्ठा को कोई धक्का नहीं पहुँचता। उल्टे बहिष्कार करने वाले लोगो की ही वदनामी होती है । यदि निर्मल और शुद्ध-हृदय लोगो का बहिष्कार करके हम उन्हे खो देगे, तो फिर जाति मे रह ही क्या जायगा? इसलिये समझदारी का मार्ग यही है कि ऐसे लोगो का हम नाम ही न ले। यह कलियुग है, इसमे जो कुछ हो उसे हम चुपचाप देखते रहे।" इन वृद्ध पुरुष की मुख्य दृष्टि सच्ची थी, यद्यपि कलियुग की उनकी दलील निरर्थक थी। यह जरूरी है कि समाज के प्राचारो की (रहन-सहन की) प्रत्येक युग मे जाँच की जाय। उनमै आवश्यक परिवर्तन होना भी जरूरी है। शरीर को हम रोज नया पोपण देते है और गदगी भी रोज शरीर से बाहर निकालते रहते है, जिससे शरीर निरोग रहकर अच्छी तरह अपना काम करता है । यही बात समाज-शरीर पर भी लागू होती है। जिस प्रकार खाये हुए आहार का कुछ समय बाद रक्त बनता है और उसका निकम्मा भाग गदगी के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है, उसी प्रकार अच्छी से अच्छी प्राचीन व्यवस्था अपने-अपने समय को पोपण देने के बाद सडाध के रूप मै बची रहती है। उसे यदि हम समाज से निकाल न फेके, तो समाजशरीर बदबू करता है और रोगी हो जाता है। प्रतिदिन होने वाले विकाम को जव हम रोक देते है, तो किसी समय सन्निपात की तरह ममाज मे एकाएक क्राति फूट पडती हैं। विकाम को रोकने का अर्थ है क्राति को निमत्रण देना, फिर यह भाति विदेशी आक्रमण के रूप में हो या भीतरी विद्रोह के *प मे। मामयिक मुधारो के बिना धार्मिक जीवन टिक नहीं मकता, इमलियं सामाजिक मुधार-सामाजिक प्रगति के मात्र भीम नियमो को हम जान
SR No.010411
Book TitleMahavira ka Jivan Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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