SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 100 महावीर का जीवन सदेश उनमे व्यक्ति स्वातन्त्य का विकास हुआ है ऐसा कही भी प्रमाणित नही हुआ है । और इसीलिये उनका जीवन वनस्पति जीवन के समान एक ही ढाँचे मे ढला हुआ होता है । उनका जीवन प्रवाह एक ही पात्र मे से बहता है । हिन्दुस्तान में पहले वडे - वडे प्रविभक्त कुटुम्ब होते थे । एक ही कर्ता पुरुष के अनुशासन में तीन-नीन चार-चार पीढियो तक के लोग एकत्र रहते थे । इन सभी के जीवन की सुसूत्रता देखकर आश्चर्य व आदर पैदा होता है । ऐसे कुछ कुटुम्ब आज भी दिखाई देते है | चन्द जाति सस्थाए भी इसी तरह सुचारु रूप से चलती आई है और उनमे असाधारण सामाजिक शक्ति पायी गई है। इन कुटुम्बो की और जातियो की इस समूह वृत्ति को सहकारिता कहे या यह केवल एक टोली धर्म है ? Herd instinct है ? दोनो मे से एक भी पक्ष लेना मुश्किल है । कुटुम्ब निष्ठा मे र जाति-निष्ठा मे वौद्धिक और प्राध्यात्मिक सद्गुणो का विकास होता स्पष्ट दिखाई देता है । इसके विपरीत सहकारिता के मूल मे जो व्यक्तित्व का विकास होना चाहिये वह वहुत ही कम दिखाई देता है । जो वडे - वडे कुटुम्ब चला सकते है या जिनको बडे कुटुम्बो के घटक वनकर रहना साध्य होता है, जाति-निष्ठा के कारण जिन्होने असाधारण जीवनसिद्धि सिद्ध कर बताई है, इतना ही नही, वल्कि धर्म के क्षेत्र मे . जिन्होने साम्प्रदायिक सघ पीढी दर पीढी चलाये है, ऐसे हमारे लोग वदली हुई परिस्थिति मे संघटित क्यो नही हो सकते ? समाज का सकट वे क्यो पहचान नही सकते ? युग-धर्म के अनुकूल सघ कैसे बनाने चाहिये, वह कितने वडे होने चाहिये आदि सघ-विद्या का व्याकरण उनकी समझ मे क्यो नही आ रहा है ? तो फिर क्या आज तक का हमारा साघिक इतिहास केवल एक Herd instinct ही थी ? भगवान् बुद्ध ने सब जातियो मे से शिष्य बनाये और उनका एक सघ बहुत अच्छी तरह से चलाया । इस संघ का प्रकार और उसका इतिहास विनयपिटक मे सविस्तर देखने को मिलता है । जो वैष्णव धर्म सारे हिन्दुस्तान मे फैला हुआ है उसमे मुसलमान आदि अन्य धर्म के लोग भी दाखिल हुए और उनको स्वीकार भी किया गया इतनी व्यापक दृष्टि और सघ-शक्ति का जिन्होने विकास किया वे दुनियाँ मे तरह खो बैठे, यह समाजशास्त्रियो के सामने एक बडा । अपना स्थान किस मुश्किल सवाल है ।
SR No.010411
Book TitleMahavira ka Jivan Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajasthan Prakruti Bharati Sansthan Jaipur
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy