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________________ महावार डा अन्तस्तल [५९ .. और अब तो में घर की प्रत्येक घटना का सूक्ष्म निरीक्षण करता हूँ उसका विश्लेपण करता हूँ। प्रलाद पर खड़ा खड़ा पथिकों की चेष्टाओं और उनके आपसी संघर्षों पर दृष्टि रखता है. उनके कलह प्रेम-महयोग को वाते सुनता हूँ। इससे मानव प्रकृति का काफी गहरा अनुभव होरहा है। आज सोचता है कि अगर मैंने इन अनुभवों का संग्रह न किया होता और शीघ्र ही निष्क्रमण कर लिया होता तो मैं जगत् का वैद्य बनने के लिये बहुत अयोग्य होता। यह ठीक है कि केवल इन्हीं अनुभवों से काम न चलेगा, गृहत्याग के बाद भी मुझे बहुत अनुभव करना पड़ेंगे। और उन अनुभवों का निष्कर्ष निकालकर उसे वितरण करने के लिये एक पूरी सेना लगेगी इसलिये निष्क्रमण जरूरी है, पर आज जो अनुभवों का संग्रह होरहा है वह भी जरूरी है। इसे भी सर्वज्ञता की सामग्री कहना चाहिये । ११- पितृवियोग ४ चिंगा ६४३० इतिहास संवत् एक सप्ताह से पिताजी की तबियत बहुत खराब थी। माताजी ने तो अहर्निश सेवा.की, चिन्ता और जागरण से उनका स्वास्थ्य लथड़ गया मैं भी सेवा में उपस्थित रहा, राज्य में जितने अच्छे वैद्य मिलसकते थे उतने अच्छे वैद्य बुलाये गये पर कुछ लाभ न हुआ और आज तीसरे पहर उनका देहान्त होगया । मृत्यु का दृश्य देखने का यह पहिला ही प्रसंग था । मृत्यु ! ओह ! कितना भयंकर और कितना मर्मभेदी दृश्य ! पर जितना भयंकर उतना ही अनिवार्य और उतना ही आवश्यक भी। नृत्यु न हो तो जन्म भी न हो, कर्म करने के लिये नया क्षेत्र भी नारिले। सारे पुरखों के लिये घर में जगह रह भी नहीं
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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