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________________ महावीर का अन्तम्तल [५१ ArshARArAhArAnni साधना करना है उसमें तुम मेरा सहयोग अलग रहकर ही कर सकता हो । भैया को वनवास के दिन पूरे करना है सुनकी कोई विशेष साधना नहीं है, वे अपने दिन भाभीजी को साथ रखकर भी पूरे कर सकते हैं । पर मुझे तो भैया भाभी की सेवा करने की साधना करना है, उनको आराम से जंगल में भी नींद आये, इसलिये मुझे कोदण्ड चढ़ाये गत रात पहारा देना है, प्रत्येक असुविधा और संकट की राह में अपनी छाती अड़ा देना है । यह सब तुम्हारे साथ कैसे होगा? क्या तुम सोचती हो कि भैया भाभी को सुख की नींद आये इसलिये मैं तुम्हें साथ लेकर पहरा दूंगा ? क्या भैया भाभी एक क्षण के लिये भी इस बातको सहन कर सकेंगे? यह सत्र असम्भव है ! असम्भवतम है !! ऊर्मिला देवी नीची दृष्टि किये खड़ी रही । क्षणभर बाद लक्ष्मण ने फिर कहा-मैंने इस साधना को जो स्वेच्छा से अपनाया है, वह केवल इसलिये नहीं कि मैं भैया का भक्त हूँ किन्तु इसलिये कि मनुष्यता के ऊपर, न्याय के ऊपर, भगवान के ऊपर जो संकट आया है वह टलजाय, निर्विष होजाय । मर्यादा पुरुषो. त्तम राम को अगर न्यायमूर्ति होने कारण वन वन भटकना पड़े और उस समय यह जगत् लक्ष्मण सरीखा एक तुच्छ सेवक भी उनकी सेवा में न रख सके तो मैं सच कहता हूँ देवि ! विधाता के आंसुओं से यह जगत् बह जायगा, यह कृतघ्न. जगत् सत्येश्वर के कोप से रसातल में चला जायगा सत्येश्वर को प्रसन्न रखने के लिये मुझे यह साधना करना ही चाहिये और जगत् के कल्याण के लिये तुम्हें भी मेरा वियोग सहना चाहिये । ऊर्मिला की आंखों से आँसू बहने लगे । कठोरं हृदय लक्ष्मण की आंखों में भी आंसू आगये । उनने उर्मिला को छाती से लगाकर कहा-मैं जानता हूँ देवि ! कि मेरी साधना से तुम्हारी साधना कितनी कठिन है ! मेरे तो लेवा करते करते बारह वर्ष LJ
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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