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________________ महावीर का अन्तस्तल शब्दालपुत्र कुछ रुका, फिर वाला - शांत तो न रह सकूंगा भगवन: अले पूरा दंड दूंगा, पीहूंगा या प्राण ही लैलूंगा । ३०८ ] AAAAA 000 मैं इसका तो तात्पर्य यह हुआ कि तुम उसे उसके कार्य का उत्तरदायी मानोगे । पर जब हर एक कार्य नियत हैं तो उसे उत्तरदायी क्यों मानना चाहिये ? क्या नियतिवाद का यही अर्थ है कि मनुष्य अपने पापको नियतिवाद के नाम पर ढकदे और दूसरे के पापों का बदला देने के लिये नियतिवाद को भुलादे । शब्दालपुत्र, अगर तुम नियतिवाद मानकर चलो तो जीवन में कितने पाद चल सकते हो, और जगत की व्यवस्था किस प्रकार कर सकते हो ? शव्दालपुत्र- नहीं कर सकता प्रभु में अत्र समझाया कि नियतिवाद एक तरह की जड़ता की राह है. दम्भ है, अपने पापमय और पतनमय जीवन के उत्तरदायित्व से बचने के लिये एक ओट है | यह बहुत बड़ी आत्मवञ्चना और परवञ्चना है प्रभु । मैं- आत्मवञ्चना से अपनी आंखों में धूल झोंकी जासकती है शव्दालपुत्र, परवञ्चना से जगत् की आंखों में धूल झोंकी जासकती है, पर जगत की कार्य कारण व्यवस्था की आंखों धूल नहीं झोंकी जासकती । नियतिवाद की ओट लेकर जो आलसी कायर अकर्मण्य बनेगा वह निगोद वनस्पति आदि दुर्गातियों में जायगा । जो नियतिवाद की ओट लेकर पापी बनेगा, पाप छिपायगा वह तरक आदि दुर्गतियों में जायगा । वह निय तिवादी था इसलिये परलोक में अपनी जड़ता और पापशीलता के उत्तरदायित्व से न बच पायगा । शब्दालपुत्र- नहीं बच पायगा प्रभु, सचमुच नहीं वचपायगा | अब मैं आपका शरणागत हे प्रभु, मुझे आप अपने
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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