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________________ महावीर का अन्तस्तल २७३] * भोगले । तीर कादय से उसकी शरीर रचना भीतर से ऐसी होजाती है कि इच्छा करते हुए भी वह कामवासना को जीत . नहीं पाता । तपस्याएँ भी निष्फल जाती हैं । नन्दीपेण तीरकामी मनुष्य है यह बात इस डेढ़ माह के परिचय से मैं समझ गया हूं, ऐसी अवस्था में इसका श्रमण बनना ठीक नहीं। इसमें सन्देह नहीं कि वह सच्ची श्रद्धा से श्रमण हुआ है, वह श्रामण्यको पालने की पूरी कोशिश करेगा, तपस्याएँ करेगा, एकान्तवास करेगा पर उसका तीर कामोदय अस कामवासना के दमन में सफल न होने देगा । कई वर्ष भोग भोगने के बाद जब उसके शरीर में कुछ शिथिलता आयगी तभी वह कामवासना को जीत पायगा । इसलिये मैंने उसे रोका था। अब नन्दीषेण एक वार चरित्रभ्रष्ट तो अवश्य होगा फिर भी उसकी श्रद्धा इतनी बलवान है कि वह सम्यक्त्वभ्रष्ट न होगा और इसी कारण समय आने पर वह फिर संयमी बन जायगा । यही कारण है कि पहिले मने झुसे रोका, फिर जब यह नहीं रुका तब मैंने अपेक्षा की। गौतम ने हाथ जोड़कर कहा-धन्य है प्रभु आपकी दिव्यदृष्टि, अलौकिक है प्रभु आपका विवेक, असीम है प्रभु आपकी उदारता। ७४-जन्मभूमि दर्शन ६१ मम्मेशी ९४४५ इतिहास संवत् । गतवर्ष राजगृह से बिहार कर मैं अपनी जन्मभूमि की तरफ निकला । अनेक गांवों में विहार करता हुआ ब्राह्मणकुंड आया, और बहुसाल चैत्य में ठहरा । क्षत्रियकुंड यद्यपि बहुत दूर नहीं था फिर भी में वहां नहीं टहरा । इसके कई कारण थे ।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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