SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४ ] महावीर का अन्तस्तल मल है, पर किसी की शांत भी हो सकती है, पर वह आगे नहीं बढ़ सकता, असके विकार उमड़ेंगे और वह असंयम की ओर गिरेगा । इसलिये वर्तमान वीतरागता समान होने पर भी शान्त मलवाले का शांतमोह गुणस्थान, और क्षीणमलवाले का अणिमोह गुणस्थान अलग बनाना उचित मालूम होता है । क्योंकि एक से मनुष्य गिरता है दूसरे से चढ़ता है। इस अन्तर के कारण अलग अलग गुणस्थान हैं । १३- क्षीणमोह होजाने पर मनुष्य को पूर्ण ज्ञान होजाता हैं । सम्यग्ज्ञान में सब से बड़ी बाधा मोह की है, मोह निकल जाने पर मनुष्य शुद्ध ज्ञानी या केवलज्ञानी होजाता है। सिर्फ थोड़े से ही उपयोग लगाने की जरूरत है । बारहवें गुणस्थान के वाद एकाध घड़ी में ही तेरहवां गुणस्थान होजाता है । यहां पूर्ण निमहता भी हैं पूर्ण ज्ञान भी हैं। इस गुणस्थानचाला जनहित के काम में लगा रहता है। इसलिये मनवचन काय की प्रवृत्ति बहुत अधिक होती है, पर होती है निर्मल | मनवचन कार्य की इस प्रवृत्ति का नाम में योग रखना चाहता हूँ इस प्रकार तेरहवां गुणस्थान सयोग केवली कहलाया । २४ -- तेरहवें गुणस्थान में अर्हत जीवन भर रहता है, ' वह जनहित के काम में लगा रहता है । जनहित के लिये जन हित के विरोधियों से संघर्ष करना पड़ता है, यद्यपि इस संघर्ष की कोई कपाय वासना उसके आत्मा में नहीं रहती किन्तु वासना ही क्षणिक तरंगें तो उठती ही है, मुसके आत्मा पर राग द्वेष का रंग नहीं चढ़ता पर उसकी छाया तो पड़ती ही हैं. इसे मैं कपाय नहीं कहूंगा यांग कहूंगा, या शुभ लेश्या कहूंगा पर यह अर्हत में भी अनिवार्य है, क्योंकि उसे जनसेवा करना है फिर भी वह मानना पड़ेगा कि आत्मा की एक ऐसी अवस्था भी हो सकती हैं जब उसमें यह लेश्या भी न हो, छाया भी न हो }
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy