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________________ महावीर का जन्तस्तक [२४३ ......... ~ ~.. ... ..... ८-२-१०-इसके बाद आज मुझे विकास की कुछ ऐसी अवस्थाओं का अनुभव हुआ है जो बार बार अनुभव में नहीं थाती । उनमें कपाय मन्द से मन्दतर होती जाती है । मैं समझता है कि अगर मुहूर्तभर भी कोई मनुष्य इन अवस्थाओं में से गुजर जाय तो वह अहत होजायगा। हां! मैं यह भी सोचता हूं कि असके अन्तर्मल अगर सिर्फ शान्त हुए हो नष्ट न हुए हों, तो अन्तर्मल के उभड़ने पर उसका पतन अर्हत होने के पहिले ही होजायगा । इस प्रकार की अपूर्व अवस्थाएँ शांतमल से भी होसकती है, क्षीणमल से भी होसकती है, पहिली में पतन निश्चित है दूसरी में अहन्त होना निश्चित है, फिर भी परिणामों की निर्मलता समान है। यद्यपि वे अवस्थाएँ कषायों के कम होने या छटने से होती है फिर भी प्रारम्भ की अवस्थाओं का नामकरण में कषायों की मन्दता के कारण नहीं, किन्तु आनन्दानुभव के कारण करना चाहता हूं । पहिले मुझे इस बात का बड़ा आनन्द हुआ कि यह अवस्था अपूर्व है अनोखी है इसलिये इसका नाम अपूर्वकरण रखता है। फिर में यह अनुभव करने लगा कि इस अवस्था से 'नहीं लौटना है इसलिये इसका नाम अनिवृत्निकरण रखता है। इसके बाद मुझे मालूम हुआ कि हलके से लोभ को छोड़कर मेरी सब कषायें नष्ट होगई इसलिये इसका नाम सक्षममोह रखता हूं। इसप्रकार ये ८, ६, १०, वे गुणस्थान है जो हरएक को नहीं मिल सकते । साधु होने पर भी साधारणतः मनुष्य छठे सातवे गुणस्थान में ही चकर लगाते रहते हैं । इसके ऊपर उत्तमध्यानी ही पहुँचते हैं। .. ११-१२--दसवें गुणस्थान के बाद मैंने अनुभव किया कि मैं पूर्ण वीतराग होगया हूं । पर यह पूर्ण वीतरागता शान्तमल भी होसकती है और क्षीणमल भी । मेरी वीतरागता क्षीण
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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