SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४०] महावार का अन्तस्तल . मैं समझता हूँ, मने जीवन में जितने कठोर उपसर्ग सहे अनमें सबसे कटोर यह उपसर्ग था, और आश्चर्य की बात यह है कि करीब बारह वर्ष तक अहिंसा की कठोर साधना करने के बाद भी इस प्रकार का उपसर्ग हुआ था ! पर अब इस प्रकार के उपसंगों की परम्परा बन्द करने लायक परिस्थिति निर्माण करना आवश्यक है। और इसका ठीक उपाय यही हं कि विशाल संघ की रचना की जाय, जिससे इस ग्वाला सरीखे अबोध से अबोध प्राणियों से लगाकर विद्वान् और बुद्धिमान् कहलाने वाले उच्च से उच्च मनुष्यों को वास्तविक ज्ञान का और सच्ची अहिंसा का दर्शन हो सके। मै कुछ महीनों के भीतर ही इस विषय की योजना की तरफ अधिक से अधिक ध्यान दंगा । मेरी. अहिंसा की आत्म साधना अब पूरी हो चुकी है, और ज्ञानसाधना में भी नाममात्र की कमी है, जो कि इने-गिने दिनों में पूरी हो जायगी। इसके बाद संघ-रचना का कार्य शुरू किया जायगा। ६६ - गुणस्थान 1बुधी ९४४४ इतिहास संवत्-~ आज तक मैंने जीवन विकास की जितनी श्रेणियों का अंनुभव किया है चिन्तन मनन किया है उन सब का श्रेणी विभाग आज कर डाला, एक तरह से मेरी आत्म साधना पूरी होगई है, अब उसका मार्ग दूसरों के लिये तैयार करना है। . १- संसार के साधारण प्राणी. अविवेक और असंयम के शिकार हैं। वे स्वपर कल्याण का मार्ग नहीं देख पाते और न कपाय वासना से पिंड छुडा पाते हैं। ये मिथ्यात्वी प्राणी पहिली. कक्षा में हैं। विद्वत्ता प्राप्त कर लेने पर भी, त्यागी मुनि का वेप ले लेने पर भी, बाहर से शान्त दिखने पर भी भीतरी र डाला, एक तन मनन किया है की जितनी कि
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy