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________________ २२८ ] इसके बाद उसने मुझे फिर प्रणाम किया। थोड़ी देर बैठकर मैं चला आया । नाना तरह के विचार मेरे मन में आते रहे | और तब तक आते रहे जब तक मुझे नींद न आगई । १६ चिंगा ६४४२ इ. संः महावीर का अन्तस्तल कल दिनभर जो विचार आते रहे उनने विकृत होकर रात में बड़े विचित्र स्वप्न का रूप लिया | मैंने देखा कि पूरण तापस मरगया है और मरकर असुरों का इन्द्र हुआ है । पैदा होते ही उसने चारों ओर देखा कि यहां मुझसे बड़ा कोई है तो नहीं । आसपास जो असुरियाँ और असुर खड़े थे वे प्रणाम कर रहे थे, पर ऊपर जब उसने स्वर्ग देखा तब वहां देवेन्द्र का वैभव देखकर उसे क्रोध आगया । बोला यह कौन है जो मेरे सिर पर बैठकर राज्य कर रहा है ? साथी असुरों ने कहा- यह देवराज शक है। इसने कहा- तो मेरे रहते इसे स्वर्ग पर राज्य करने का क्या अधिकार है ? मैं उसे नीचे गिराऊंगा । jeven असुरों ने रोका पर यह न माना। एक मुहर लेकर यह देवेन्द्र विजय के लिये चल निकला। पर रास्ते में उसे मेरा इसलिये मेरी वन्दना को मेरे पास आया और 1 खयाल आया बोला- आशीर्वाद दीजिये कि मैं देवेन्द्र को जीत लृ । में चुप रहा ! फिर बोला- अगर में देवेन्द्र को न जीत पाऊं तो मैं आपकी ही शरण आऊंगा । आशा आय मेरी रक्षा करेंगे 1 1 मैं कुछ मुसकराया पर बोला कुछ नहीं । वह प्रणाम करके चला गया । आसमान में पहुचकर उसने विशाल रूप बनाया, उसके हस्तचालन से और मुद्गर घुमाने से तारे टकरा गये और टूटने लगे । सौधर्म स्वर्ग में उसका विकराल रूप देखकर साधारण देव
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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