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________________ महावीर का अन्तस्तल [२२७ - ~- ~ ~ प्रकार आधिकार और वैभव से सम्पन्न होने पर भी जैसी शान्ति मुझे मिलना चाहिये थी वैसी न मिली । मेरा नाम पूरण है पर जैसा चाहिये वैसा पूरण मैं बन नहीं पाया! मैंने कहा-पर क्या आप समझते हैं कि इस राह से कभी किसी को स्थायी शांति मिल सकती है ? अधिक वैभव का अर्थ हैं दूसरों का अधिक गरीब होना, अधिक अधिकार का अर्थ है दूसरों में अधिक दासता होना, इससे मोह और मद ही बढ़ता है। इस प्रकार न हम आत्मा को शुद्ध कर सकते है न दुसरों को शुद्ध और सुखी बना सकते हैं बल्कि दुसरों में ईर्ष्या द्वेष पैदा करने के कारण विरोधियों की संख्या ही बढ़ाते हैं। उनमें से कोई विरोधी शक्ति संचय करके हमें पराजित भी कर सकता है, उसकी चिन्ता से भी हमें शान्ति नहीं मिलती। इसलिये अच्छा यही है कि हम विश्वप्रेम अर्थात् परम वीतरागता के ध्येय से तप करें | वैभव के ध्येय से नहीं। तापल थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला-आप कोई महान ज्ञानी मालूम होते है. मैं आपको प्रणाम करता हूँ। यो तो प्रणाम सम्प्रदाय का तापस होने के कारण में सभी को प्रणाम किया करता हूं पर आपका उत्कृष्ट ज्ञान और परम वीतरागता देखकर यापको विशेष प्रणाम करता हूं। यह कहकर उसने मेरी तरफ तान वार अंजलि जोड़कर प्रगाम किया। फिर बोला-पर मैं क्या करूं ! आपकी बातों में अनुराग होनेपर भी उन्हें जीवन में नहीं उतार सकता । जीवनभर के संस्कार सहसा नष्ट नहीं होपाते हैं। मैं मृत्यु शय्यापर पड़ा हूं पर महत्वाकांक्षा भीतर ही भीतर तांडव कर रही है। फिर भी मैं चाहता हूं कि मरने के बाद घरलोक में मेरी महत्वाकांक्षा पूरी हो या न हो, या कितनी भी हो, फिर भी मैं आपको न भूलें।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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