SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२०] महावार का अन्तस्तल करता है. इसलिये शुभ और शुद्ध स्थूल दृष्टि से एक मरीखे .. मालूम होते हैं परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से शुभ और शुद्ध में बहुत अन्तर है । शुभ में राग या मोह परिणति है, शुद्ध में वीतराग परिणति है । भावों के इस भेद का परिणाम भी भिन्न भिन्न ही होता है । रागी के शुभ कार्य कुछ पक्षपान पूर्ण होत हैं, या कुछ आशा रखते हैं, इसलिये अन्त में मानसिक दुख देते हैं। हमने इतना भला किया है इसलिये इतना नाम होना चाहिये, उपकृतको मेरा उपकार मानना चाहिये या मरने पर मुझे उसका फल मिलना चाहिये इस प्रकार की रागपरिणति अन्त में दुःख देती है, फलाशा से कभी कभी अविवेक भी आजाता है. झुपकृत में प्रतिक्रिया भी होने की सम्भावना रहती है. इसलिये शुभ परिणति मोक्ष सुख नहीं दे सकती । वह अशुभ से अच्छी है, बहुत अच्छी है, पर शुद्ध के समान चिरन्तन स्वपर कल्याणकाग नहीं। यह ठीक है कि अशुभ परिणति में फंसा हुआ जीव पहिले शुभ परिणति में आयगा, और वहां से शुद्ध परिणति में । शुभ और शुद्ध के बाहरी कार्य एक सरीखे होते हैं केवल परि जामों में अन्तर रहता है, जो धीरे धीरे दूर किया जासकता है। मुझे तो मनुष्य को पूर्ण सुखी बनाना ह चिरन्तन सुखका आनन्द देना है, इसलिये में जगत को शुद्ध परिणति की ओर लेजाना चाहता हूं। इसलिये अशुभ परिणतिरूप पाप और शुभ परिणतिरूप पुण्य दोनों को आश्रव मानता हूं । परन्तु शुभ और अशुभ में अन्तर है, इस बात को समझाने के लिये पुण्य पाप के रूप में इनका अलग विवेचन भी करना पड़ेगा इसलिये सात तत्व नव तत्व वन जायंगे। . ... कल्याण के मार्ग पर चलने के लिये इन नव पदों का अर्थ अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये इसलिये इन्हें नव पदार्थ : भी कहसकते हैं। .
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy