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________________ महावीर का अन्तस्तल [२०७ - . - आनन्द-बहुत ठीक कहा भगवन् आपने । सर्वदशी भी वस्तु का इसी तरह दर्शन करते हैं । एक अंश से सब अंश, एक : .काल से सब काल । सर्वज्ञ अनंतन नहीं होता। मैं-सर्वक्ष सर्वज्ञ होता है. अनंतज्ञ नहीं। वह आत्मकल्याण के लिये जितने ज्ञान की जरूरत है उतना सब जानता है. चाहे भूत भावग्य की हो, चाहे ऊर्ध्व लोक या पाताल लोक की, इस दृष्टि से वह त्रिकालदर्शी होता है, पर अनन्त को नहीं जानता । इसप्रकार सर्वज्ञ के विषयमें 'हाँ' और 'ना' अर्थात् अस्ति और नास्ति दोनों भंगों का उपयोग किया जासकता है। आनन्द-फिर भी वाह्य वस्तुओं के जानने के बारे में ज्ञान की कुछ मर्यादा तो होगी। - मैं- हां ! मर्यादा होगी, पर वह बताई नहीं जा सकती। - वह अवक्तव्य है। यह भी एक त्रिभंगी होगई आनन्द, अस्ति नास्ति और अवक्तव्य। आनन्द- पर यह तो एक तरह का अज्ञेयवाद हुआ मैं- हां ! शेयवाद अज्ञेयवाद, नित्यवाद अनित्यवाद आदि सभी वादों का समन्वय करने से सत्य के दर्शन होते हैं आनन्द । - आनन्द-बहुत ही अपूर्व है प्रभु यह सिद्धांत, बहुत ही अद्भुत है प्रभु यह सिद्धांत, इससे दर्शन-शास्त्रों के सब झगड़े मिटाये जासकेगे प्रभु, में आपके इस सिद्धान्त से बहुत ही सन्तुष्ट हुआ भगवन् । अब आप तीर्थप्रवर्तन करें भगवन् ! मैं- तीर्थ प्रवर्तन का समय भी शीघ्र ही आनेवाला है आनन्द । . आनन्द प्रणाम करके चला गया । मैं सोचता हूं कि यही त्रिभंगी मेरे दर्शन का सार होगी । अर्थ की दृष्टि से उत्पाद व्यय ध्रौव्य, और ज्ञान की दृष्टि से अस्ति नास्ति अवक्तव्य । जो. इस त्रिभंगी को समझ लेगा वह मेरे दर्शन को समझ लेगा।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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