SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर का अन्तस्तल [ २०३ अवधिज्ञान में ज्ञान का विकास है अर्थात् ज्ञानावरण का क्षयोप शम है इसलिये उसे क्षयोपशम निमित्तक कहते हैं । इसलिये आनन्द, तुम अपने देशावविज्ञान के द्वारा देवों से अधिक ज्ञानी हो । आनन्द के चेहरे पर प्रसन्नता नाचने लगी । सर्वज्ञता ५ २८ तुपी ६४४ इ. सं. इस वाणिजक ग्राम में ही मेरा दसवां चातुर्मास बीत रहा है। श्रमणोपासक आनन्द प्रायः आता रहता है और कुछ न कुछ प्रश्न पूड़ता रहता है। उसके प्रश्नों से मुझे बहुतसी बातों पर गहराई से विचार करना पड़ा, और तीर्थ प्रवर्तन के समय किस नीति से काम लेना चाहिये इस विषय की पर्याप्त सामग्री मिली । मुझे मानव जीवन को पवित्र और प्राणियों को अधिक से अधिक सुखी बनाना है । पर अगर एक मनुष्य अपने सुख के लिये दूसरे के सुख की पर्वाह न करे तो परस्पर छीनाझपटी और संहार के कारण यह जग नरक बनजाय। इसलिये एक दूसरे की सुविधा का ध्यान रखना संयम से रहना आदि का सन्देश मुझे देना है | इतने पर पूरी तरह परस्पर न्याय होने लोगा, और संसार में किसी तरह का कट न रहेगा यह तो नहीं सकते, इसलिये मनुष्य के मन को ही इतना स्वसन्तुष्ट 'बनाना पड़ेगा कि वह इस जगत को खेल समझकर निर्लिप्त भाव से रह सके, असका आत्मा बाहरी परिस्थितियों के बन्धन न रहे । इस प्रकार मुझे संयम का और परिस्थितियों के प्रभाव से मुक्ति का सन्देश / जगत को देना है । पर इनेगिने
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy