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________________ २००] महावीर का अन्तस्तल आनन्द-नहीं। मैं-स्वर्ग नरक में तुम क्या देखते हो? आनन्द-वहां का हरएक. नारकी अपनी लम्बी आयु पूरे हुए बिना किसी भी, तरह नहीं मरता और जीवनभर ताइन छेदन ज्वलन पीड़न आदि की भयंकर वेदना सहता है । ये सत्र दृश्य आंख बन्द करने पर मुझे ऐसे दिखाई देते हैं मालों में अपनी आंखों से देख रहा हूं। इसी तरह स्वर्ग भी दिखाई देता है। वहां विषय भोगों का असीम विलास भरा हुआ है। मैं-तुम्हें कितने स्वर्ग और कितने नरक दिखाई देते हैं ? आनन्द- मुझे तो एक ही स्वर्ग और एक ही नरक .. दिखाई देता है। मैं- एक गृहस्थ को स्वर्ग और नरक का इतना ही प्रत्यक्ष पर्याप्त है आनन्द ! यो नरक एक नहीं सात है। जो एक के नीचे एक है और उनमें एक से एक बढ़कर कष्ट हैं । स्वर्ग भी एक नहीं बारह हैं और उनके ऊपर भी ऐसे देवलोक हैं जिनकी तुम कल्पना नहीं कर सकते, वहां छोटे बड़े की कल्पना नहीं है। आनन्द-पर इन सब का मुझे कैसे प्रत्यक्ष हो सकता है भगवन ! . मैं-आज तुम्हें उनका प्रत्यक्ष नहीं होसकता आनन्द, सुना हुआ ज्ञान अर्थात श्रुतज्ञान ही हो सकता है । प्रत्यक्ष तो तुम्हें पक देश का ही होसकता है, इस देशावधि प्रत्यक्ष की प्राप्ति भी कम दुर्लभ नहीं है आनन्द ! आनन्द- आपको यह प्रत्यक्ष कबसे है भगवन ! मैं- लोकावधि प्रत्यक्ष तो एक रात्रि में कठोर शीतोप. लगे सहते सहते ध्यानमग्न होने पर मिला था। पर देशावधि प्रत्यक्ष तो मुझे प्रारम्भ से ही है।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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