SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर का अन्तस्तल [ १९१ हुए कहा- जा, इस अमोघ तेजोलेश्या से तू भस्म होजायेगा और तेरे शरीर में ऐसा दाह पैदा होगा कि सन्ध्या तक उस दाह के बढ़ने से तू मर जायगा । यह सुनते ही गोशाल हतप्रभ होकर मेरे पास दौड़ा आया, और उसे ऐसा मालूम होने लगा कि उसका शरीर जल रहा है। आते ही असने कहा- प्रभु, मुझे बचाइये मेरा शरीर जल रहा है । मैंने सब बात पूछी और गोशाल ने सारी बात ज्यों की त्यों बतादी । उस समय अगर मैं यह कहता कि तेजोलेश्या कुछ नहीं होती यह एक भ्रम है, तो गोशाल असपर विश्वास न करता और सम्भवतः अपनी मानसिक दुर्बलता से सन्ध्या तक मर भी जाता । इसलिये मन्त्र की शक्ति को अस्वी कार करने की अपेक्षा प्रतिमंत्र का उपयोग करना ही ठीक समझा । " मैंने कहा- गोशाल यह तेजोलेश्या का प्रयोग है इसके दाह से सचमुच मनुष्य मरजाता है पर मैं शीतलेश्या के प्रयोग से इस तेजोलेश्या को मारदेता हूं। तुम सर नहीं सकोगे । देखो, ज्यों ज्यों मेरे हाथ की छाया तुम्हारे सिर से नीचे की ओर जायगी त्यों त्यों तेजोलेश्या का प्रभाव घटता जायगा । और सातवीं बार बिलकुल घट जायगा । मैंने जिस दृढ़ता के साथ ये शब्द कहे थे उसका प्रभाव गोशाल पर आशातीत पदा, मैंने हाथ को ऊपर से नीचे इसप्रकार किया कि उसकी छाया गोशाल के सिर से पैर की तरफ निकलने लगी | मुझ पर दृढ़ विश्वास के कारण गोशाल यह अनुभव करने लगा कि उसका दाह कम होरहा है । सातवीं बार मैं प्रसन्नता से उछल पड़ा और हर्षोमन्त होकर चिल्लाने लगा - मरगई, शीतलेश्या से तेजोलेश्या मरगई । मेरा सारा दाह दूर होगयो ।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy