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________________ १६०] महावीर का अन्तस्तल ~ wwwm मैंने कहा- सचमुच यक्षपूजा हेय है फिर भी यज्ञकांडों बरावर हेय और घृणित नहीं। श्रमणों का यह ध्येय है कि वे जनता को इस जंजाल से छुड़ायँगे, और उसके स्थान पर आदर्श व्यक्तियों की पूजा चलायंगे, जिससे जीवन में कुछ सीखने को मिले । जीवन में कुछ सुधारकता उत्पन्न हो । पुजारी- मैं बहुत श्रमणभक्त हूँ भगवन् ! मैं- सो तो तुम्हारी बातों से स्पष्ट मालूम होता है। पुजारी- मैं क्रिया से भी श्रमणभक्ति का परिचय देना चाहता हूँ भगवन् ! - मैं मुसकराकर बोला-जिसमें तुम्हें आनन्द हो वही करो। इसके बाद उसने मेरी खूब पगचम्पी की, शरीर पर .. लेप किया, अच्छे जल से शरीर साफ किया। और नाना तरह के सुगन्धित पुष्पों से द्रोण भरकर मेरे चारों तरफ रख दिये। फूलों का तो मेरे लिये कोई उपयोग नहीं था क्योंकि वे केवल इन्द्रियों की खुराक थे पर पगचंपी आदि से थकावट दूर हुई और शरीर कुछ अधिक सक्षम बना। पर शारीरिक सेवा से अधिक हुई मानसिक सेवा । इस पुजारी की भक्ति से ब्राह्मणों के विषय में मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया। इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मण ही आज श्रमणों के उग्र विरोधी हैं। मुझे जो कष्ट सहना पड़े हैं उसमें ब्राह्मणों का प्रच्छन्न हाथ बहुत है । फिर भी ब्राह्मण एक महाशक्ति हैं। इनके पास मस्तिष्क है और पीढ़ियों से यह मस्तिष्क संस्कृत होरहा है। यह ठीक है कि रूदिभक्ति के कारण असकी उर्वरता नष्ट होगई है फिर भी उस शक्ति का उपयोग करना आवश्यक है। अगर यह पुजारी ब्राह्मण होकर भी श्रमणभक बन सकता है तो
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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