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________________ महावीर का अन्तस्तल 1 तरह घुसा हुआ हैं जिस तरह अन्य वर्गों के मनमें। वे भी एक दूसरे को नांचा समझने की धुन में रहते हैं । और किसी भीःअवसर पर अपने ही लोगों से उच्च कहलाने का अवसर नहीं चूकते। इसी कारण यह लुहार ब्राह्मणभक्त और उग्र श्रमणविद्वेषी वनगया था जिसके कारण आज असने अपना जीवन खोया । ४१ - यक्षपुजारी की श्रमणभक्ति [ १५६ १० घामा ९४३६ ई. सं. गांव गांव घूमता हुआ आज म ग्रामक गांव आया यहां एक यक्षमन्दिर है । इस यक्ष का नाम है विभेलिक, इसलिये जहां यक्षमन्दिर है उस उद्यान का नाम है विभेलिकोद्यान | उद्यान अच्छा है, ग्रीष्म ऋतु में भी इसमें हरियाली दिखाई देती है । पर इस अधान से जो ठंडक मिली अससे सौगुनी ठंडक मिली इस उद्यान के यक्षमन्दिर के पुजारी से है तो यह ब्राह्मण, पर बड़ा विचारक और श्रमण-भक्त मालूम हुआ । 1 जब मैं पहुंचा तब दिन का तीसरा प्रहर बीत चुका था । पर्याप्त उष्णता थी उष्णता और यात्रा के कारण मैं कुछ थक सा गया था। एक अशोक वृक्ष के नीचे एक शिलापटटू पर मैं विश्राम करने लगा। थोड़ी देर में यह आया और प्रणाम करके सामने बैठ गया। पाईले तो परिचय वार्ता हुई, फिर समाजके अन्धविश्वासों रूढ़ियों, मानव की सामाजिक घोर विषमताओं आदि पर चर्चा होने लगी । अन्त बोला- जीविका के लिये मैं पुजारी का धंधा करता हूँ पर ऐसा ज्ञात होता है कि में मोघजीवी हूँ । यक्षपूजा एक आतंक पूजा है आदर्शपूजा नहीं । ब्राह्मण लोग इस क्रियाकांड को जीविका के लिये सुरक्षित रक्खे हुए हैं ।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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