SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर का अन्तस्तल ...१५७ तभी उनका अप्लर होता है, उस विचार से मैने कुछ नहीं कहा । वह तीन बार प्रणाम कर चलीगई। ____ अब मुझे तपस्याओं के बारेमें कुछ ठीक ठीक निर्णय करना है जनमेवक को कष्ट सहना तो आवश्यक है पर अनावश्यक कष्टों को निमन्त्रण देना मूढ़ता है, दु:ग्व से धर्म होजायगा यह मिथ्यात्व है । तपों के भेद प्रभेद करके में इस विषय को पर्याप्त रूपमें स्पष्ट करदूंगा। २० ~ स्वघातक विद्वेष अंका ६४३७ ई. सं. ग्रामानुग्राम भ्रमण करता हुआ में कल संध्या को विशाला नगरी में आपहुंचा । एक लुहार की शाला में बहुन से मनुष्य कार्य कर रहे थे उनकी अनुमति लेकर मैं झुस विशाल शाला के एक कोने में ठहर गया । रात्रिभर वहीं रहा। आज उपवास होने से पोरनी का समय होने पर भी मैं भिक्षा लेने के लिये नहीं गया। वहीं बैठा रहा! भृत्य लोग काम करने लगे और कल की अपेक्षा व्यवस्थित रूपमें काम करने लगे। ज्ञात हुआ कि आज छः महीने के बाद इस शाला का स्वामी शाला में आनेवाला है। अभी तक वह छः माह से बीमार था । बीमारी चली गई है, केवल निर्बलता है। परिजनों के कंधों पर हाथ रखकर वह शाला का निरीक्षण करेगा इसलिये सभी भृत्य सतर्कता से कार्य कर रहे हैं। मैं सोचने लगा । मनुष्य और पशु में यही अन्तर है। पशु शक्ति से प्रेरित होकर भय से कार्य करता है, मनुष्य कर्तव्य से प्रेरित होकर निर्भयता से कार्य करता है। परं बहुत कम भृत्य या दास इस मनुष्यता को सुरक्षित रख पाते हैं। वे पशु के समान भय प्रेरित होकर काम करते हैं । मैं इन सब विचारों में
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy