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________________ १५६] महावीर का अन्तस्तल रतल इस विषय में बहुत सी मान्यताएँ प्रचलित हैं । कोई कोई लोग लोक को ब्रह्मांड कहते हैं, ब्रह्मका अण्ड । इस तरह उनकी हाट में जगत् अंडे के आकार का बना हुआ है । पर अण्डे. में ऊचलोक क्या, मध्य लोक क्या और अधोलोक क्या ? यह सब बताना कठिन है। और भी लोगों की नाना कल्पनाएं हैं। पर उससे मन को सन्तोष नहीं मिलता। मैं विचारते विचारते इस निश्चय पर पहुँचा हूं कि लोक पुरुषाकार है। कटि के स्थान पर यह मध्यलोक है, ऊपर ऊर्ध्व लोक, नीचे पाताल लोक । अपने मनमें मैंने इस बात का भी चित्र तैयार कर लिया है कि स्वर्ग आदि कहां है नरक कहां है असुर आदि देव कहां रहते हैं । इस प्रकार एक बड़ी गुत्थी सुलझ गई है। इस विचार में में इतना लीन हुआ कि तापसी के शीत विन्दु मेरे शरीर में कैसी घेदना पैदा कर रहे हैं इसका भी मुझे भान न हुआ मैं तो लोकावधि ज्ञान पाने में लीन था और वह मैंने पालिया : लोक की अवधिका निश्चय होगया। जब प्रातःकाल हुआ तब वह तापसी नीचे उतरी, टेकरी से नीचे उतरते समय उसकी दृष्टि मुझ पर पड़ी। वह चौंकी। झाड़ पर जहां वह खड़ी थी ठीक उसी के नीचे मुझे ध्यान लगाये देखकर उसे पश्चात्ताप होने लगा। उसने आकर मुझे प्रणाम किया, क्षमा मांगी। मेरी इच्छा तो हुई कि उसे समझाऊँ कि इस प्रकार दुःख को निमन्त्रण देने से क्या लाभ ? तुझे विवेकपूर्वक यत्न के साथ सार्थक कष्ट सहन करना चाहिये, या कभी आकस्मिक कष्ट आजाये तो उसे सहना चाहिये । इस तरह दुःखों को जानबूझकर निमन्त्रण क्यों देती है ! पर मेर। यह उपदेश अप. देश न होता उलहना होता, क्योंकि उसके व्यवहार से मुझे कष्ट हुआ था। उपदेश में अपने स्वार्थ की जरा भी छाया न हो
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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