SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर का अन्तस्तल १३४ ] स्वीकार कर रक्खी है और विवाह की मर्यादा को जो ढीला बना रक्खा है उसे सुधारने की जरूरत है । बहुविवाह को सम्भवतः मैं न रोक सकूंगा फिर भी विवाह के विना सम्मिलन को अवैध तो ठहराना ही होगा | तीर्थ प्रवर्तन के बाद मैं यह सब करूंगा ! उदासीनता का दूसरा कारण यह है कि मैं जानता हूँ कि अमुक जगह रोकने से प्रतिक्रिया ही होगी तब वहां रोकने से क्या फायदा ? अवसर देखकर ही प्रयत्न करना चाहिये । अपनी शक्ति को व्यर्थ खर्च न करना चाहिये और न अपने शब्दों में मोघता आने देना चाहिये । गोशाल मेरी इस नीति को नहीं समझपाता । ३४ - एक राज्य की आवश्यकता २३ जिन्नी ६४३५ इतिहास संवत् कल सन्ध्या को ही मैं चोराक गांव के बाहर आगया था । रातभर तो मैं आराम से सोया, चौथे पहर में खड़ा होकर ध्यान करने लगा । दिनभर के लिये मैंने मौत लेलिया था । मौन से चिन्तन में बड़ा सुभीता होता है, कम से कम गोशाल के साथ बड़बड़ करने से बच जाता हूँ । सूर्योदय होने के बाद राज्य के आरक्षक आये और पूछा तुम लोग कौन हो ? मौन होने से मैं तो चुप रहा, गोशाल बोला- हम लोग परित्राजक साधु है । आरक्षक यहां क्यों आये ? गोशा- हमारी इच्छा हुई सो हम आये, क्या आने की भी मनाई है ?
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy