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________________ मवीर का अन्तस्तल . १७चिंगा ९४६४ इ. स. चम्या नगर्ग में तीसरा चातुमांस पूरा कर मैं फिर कोल्लाक गांव में आया। बस्ती क बाहर शून्य गृह में ठहरा। रातमें एक जवयुवक अपनी एक दासी के साथ रति क्रीड़ा करने के लिये उस मकान में आया। मकान वड़ा था। दूसरे हिस्से में जाक वह उस दासी के साथ व्याभेचार करने लगा। जब वे निकलने लगे नव गोगाल ने दासी को धिकार फिया, तब उस नवयुवक ने गोशाल को खूब पीटा। इसी तरह की एक घटना पत्रकाल नगर में भी हुई, वहा भी गोशाल एक व्यभिचारी के द्वारा पिटा। आज जो घर घर में व्यभिचार का तांडव होरहा है इससे गार्हस्थ्य जीवन शिलकुल नष्ट होरहा है। ब्रह्मचर्य तो दूर, साधारण शील भी लोगों में नहीं पाया जाता | व्यभिचार की कोई मर्यादा ही नहीं है। पुरुष जिस चाहे और जितनी चाहे स्त्रियों के साथ व्य भचार करने में नहीं हिचकता, और उनके साथ वेवाहिक बन्धन में भी नहीं रहना चाहता, इस तरह समाज व्यभिचारजात मनुष्यों से भर रहा है । उनकी माताएं व्यभिचारिणी हो । हैं, बाप का पता नहीं होता, इसलिये कौटुम्बिक संस्कारों का लाभ भी उन्हें नहीं मिल पाता, इससे मनुष्य का चरित्रवल गिरता जाता है और प्रायः सभी घर अशांति की क्रीडाभूमि बने हुए हैं । इस उद्दाम व्यभिचारवृत्ति पर कुछ न कुछ नियन्त्रण लगाना होगा। पर इस तरह व्यभिचारियों को गाली देने से यह नियन्त्रण न होगा ! उसके लिये एक व्यापक आन्दोलन द्वारा समाज का वातावरण वदलना होगा। अवसर आने पर मैं वह सब करूंगा । आज जो मैं इन बातों को तरफ उदासीन रहता हूं उसका एक कारण तो यह है इन पापों को में समाज का अपराध मानता हूं, समाज ने जो विचारधारा
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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