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________________ महावीर का अन्तस्तल | १२७ रहेगा कि वह दीन बनना उसमें आत्मगौरव लेकर बड़ा है। यह चिन्ता रहती थी कि मेरा शिप्य वनकर गोशाल जाकर न जाने कैसी क्षुद्रता का प्रदर्शन करेगा । आज यह चिन्ता नहीं थी। भोजन बहुल ब्राह्मण के यहां हुआ। यह ब्राह्मण होनेपर . भी श्रमणों को बहुत आदर से जिभाया करता है मुझे भी इसने बड़े आदर से जिमाया । मैं समझता हूं कि साधु को भोजन में यथोचित आदर का ध्यान अवश्य रखना चाहिये । आदर इस बात का चिह्न है कि साधु मोघजीवी नहीं है, यह समाज सेवा का महान साधक है । इसलिये भोजनादि के रूप में जो कुछ यह जनता से लेता है वह अमाप विनिमय का बहुत ही तुच्छ अंश है । आदर सत्कार का परिणाम यह होगा कि साधु में दीनता न आने पायगी। साथ ही असे इस बात का भी ध्यान रहेगा कि वह मोघजीवी न बनजाय । मोघजीवी मनुष्य को किसी न किसी तरह दीन बनना पड़ता है। सच्चे साधक को दीन बनने की जरूरत नहीं है। उसमें आत्मगौरव रहना ही चाहिये। आजकल साधु या उससे मिलता जुलता वेष लेकर बहुत से मनुष्य भीख मांगा करते हैं इससे साधुता दूषित होरही है। जनता भी किंकर्तव्य विमूढ़ है । वह भिखारी और साधु को एक समझने लगती है। मुझे साधुओं को इतना आत्मगौरवशाली बनाना है कि इनके शब्दों का मूल्य इतना बढ़जाय कि समाज उनकी अवहेलना न कर सके । अस्तु बहुल ब्राह्मण के यहां खीर मिष्टान्न और घृतका स्वादिष्ट भोजन कर मैं ग्राम के बाहर एक वृक्ष के नीचे ध्यान लगाकर बैठ गया । पहर भर तक साधु संस्था के बारे में सोचता हुआ निश्चेष्ट बैठा रहा । ध्यान के बाद ज्यों ही मैंने नजर खोली कि देखा कि सामने से गोशाल महाशय चले आरहे हैं । पहिले तो मैंने उन्हें पहिचाना ही नहीं, पास पाने पर मालूम हुआ कि महाशयजी गोशाल हैं। . .
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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