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________________ १०६7 महावीर का अन्तस्तल vhar २५- दम्भी का भण्डाफोड़ ३ सत्येशा ६४३३ ई. सं. लोकहित की दृष्टि से यक्ष की घटना का रहस्य तो मैंने नहीं बताया फिर भी मेरे मन में यह अभिलाया बहुत तीव्र हुई कि जो पाखण्डी मंत्र तंत्र के बल पर लोगों को ठगते हैं और ठगना ही जिनकी जोषिका है ऐसे लोगों का भण्डाफोड़ करूं । जब मैं मोराक के तापलाश्रम में था तब अच्छदक नाम के एक धूर्त के बारे में बहुत सुना था। वह व्यभिचारी था चोर था और अपनी स्त्री को सदा पीटा करता था । फिर भी भविष्यदर्शी के नाम पर गांवभर में पुजरहा था। लोग दैववादी बनकर भविष्यवाणियों के चक्कर में पड़कर पुरुषार्थहीन बनते हैं, इस. प्रकार के धूतों का पेट भरते हैं और धन तथा धर्म से हाथ धोते है। . . . . . . . . . . ... .. अच्छंरक के पापों को दो एक घटनाएँ मुझे भी मालूम हैं। एक दिन भिक्षा से लौटते समय मैंने उसे चोरी का माल जमीन में गाड़ते देखा था, एक दिन तो उसने एक मेढ़ा हो चुराकर खालिया था और हड्डियाँ जमीन में गाड़ दी थीं । इन दो घटनाओं के आधार से मैंने अच्छंदक के भण्डाफोड़ का विचार कियां । इसीलिये मैं फिर माराक आया। तापसाश्रम में जाने की आवश्यकता तो थी नहीं, सीधे गांव में गया । गांववाले मुझे पहिचानते नहीं थे। तापसाश्रम से भिक्षा लेने कभी थाया भी था तब अन्य तापसों से अलग में नहीं पहिचाना गया । अच्छंदक का भण्डाफोड़ करने के लिये यह परिस्थिति काफी अनुकृल थी। ..... जब मैं गांव किनारे पहुंचा तब मुझे एक ग्वाला मिला। .. यहां के ग्बाले क्या खाते हैं यह मुझे मालूम ही था । इसलिये मैंने कहा-आज तूने कंगकर का भोजन किया है।
SR No.010410
Book TitleMahavira ka Antsthal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyabhakta Swami
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1943
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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