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________________ ( २१० ) कम था; तुम दलदल में फँस गये, निकल नही पाये । उस समय एक युवा हाथी उधर आया । पूर्व कभी तुमने उसे दंत - प्रहारों से घायल करके भगाया था । तुम्हें देखते ही उसके मन में क्रोध और द्वेष का उफान उठा। उसने अपने तीक्ष्ण दांतों से स्थान २ पर प्रहार कर घाव कर दिये । वह युवा हाथी अपना -बदला लेकर चला गया । तुम सात दिन तक उसी दलदल में फँसे पीड़ा से कराहते रहे। आखिर वहीं तुम्हारी मृत्यु हो गई । वहाँ से मरकर विंध्य पर्वतकी तलहटी में पुनः - तुम हाथी बने । मेरु से विशाल शरीर और प्रखर तेजस्विता से तुम हस्तिमंडल के नायक बने । वनचरों ने तुम्हारा नाम रखा 'मेरुप्रभ" । एक वार उस वन प्रांतर में दावानल लग गया। तुम अपने हस्ति मंडल के साथ दूर जंगल में भाग गये । इस दावानल के आकस्मिकं आक्रमण से तुम्हें 'जाति - स्मृति हो गई । वैताढ्य में लगे दावानल का रोमांचक दृश्य साकार हो गया । कुछ
SR No.010409
Book TitleMahavira Jivan Bodhini
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirishchandra Maharaj, Jigneshmuni
PublisherCalcutta Punjab Jain Sabha
Publication Year1985
Total Pages381
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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