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________________ १३७ को ढक लेते है, इसी को जैन-सिद्धान्त में कम कहते हैं। इन्ही सचित कर्मों की वजह से यह जीव विविध योनियो में भ्रमण करता हुआ सुख-दुख भोगता है। इसलिए हर समय उठतेबैठते-सोते-जागते शुभ आचार-विचार करो-जिससे ये दुष्ट कर्म तुम्हारी आत्मा को मैला-कुचैला न कर सके । इन्ही कर्म शत्रुओ को तपश्चरण द्वारा नाश कर आत्मा-परमात्मा बन जाता है। ईश्वर, परमात्मा, भगवान, पैगम्बर, खुदा-तीर्थङ्कर ये सब एक ही नाम के पर्यायवाची शब्द है । इनमे नाम का झगडा करना व्यर्थ है । परमात्मा प्राणियो का पथ-प्रदर्शक हो सकता है। उसे आदर्श अनुपम और अलौकिक मानकर उनकी पूजाअर्चना कर उनके बताये मार्ग पर चलने मे भी किसी को ऐतराज नही होना चाहिये । लेकिन यदि परमात्मा व्यक्ति की प्रवृत्तियो एव उसके फल पर बन्दिस लगाना चाहे तो यह उसकी ऐसी अनाधिकार कुचेप्टा कही जायगी जिसे कोई दिमाग रखने वाला विज्ञानी आत्मा मानने को कटिबद्ध न होगा। राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, ममता, जन्म, मरण आदि अनेक रोगो से रहित कर्म विहीन आत्मा ही परमात्मा हैं, ईश्वर है, तीर्थकर है, पैगम्वर है। विश्व-विधान से उसका कोई वास्ता नही है। सृष्टि तो जैसी आज है वैसी ही पहिले भी थी और आयन्दा भी वैसी ही रहेगी। उसमे होने वाले परिवर्तन-परिवर्द्धन और उत्पादन काल चक्र की देन हैपरमात्मा की नही। इसलिए जगत के भूले-भटके दुखित सनस्त प्राणियो को सवोधते हुए भ० महावीर स्वामी ने कहा"जप, तप, सयम, नियम, सदाचार, विज्ञान और आत्मा का अनिशि चिन्तन-मनन करने से हर एक व्यक्ति ईश्वर के अविनाशी अजर-अमर पद पर पहुंच सकता है।"
SR No.010408
Book TitleMahavira Chitra Shataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalkumar Shastri, Fulchand
PublisherBhikamsen Ratanlal Jain
Publication Year
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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