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________________ चौथा सर्ग। [५७ · · एक दिन उग्र तपश्चरणकी विभूतिको धारण करनेवाले और जिनका शरीर मासोपासके करनेसे कृप हो रहा था ऐसे विश्वनंदीने अत्यन्त उन्नत धनिओंके मकानोंसे पूर्ण मथुरा नगरीमें अपने समयपर मिक्षाके लिये प्रवेश किया ॥ ८ ॥ गलीके मुखपर-गली में घुसते ही किसी पशुके सींगका धक्का लगते ही ये साधु गिर गये । इनको गिरा हुआ देखकर विशाखनंदी नो कि पास ही एक वेश्याके मकानके उपर बैठा हुआ था हंसने लगा ॥ ८९॥ बोल-जिस बलसे पहले किलेको और समस्त सेनाको जीत लिया था, पत्थरके विशाल संभको तथा कैयके वृतको भी उखाड़ डाला था, तेरा वह बल आज कहां गया ?॥ १० ॥ विश्वनंदीने इन वचनोंको सुनकर और विशाखनंदीकी तरफ देखकर अपना क्षमा गुण छोड़ दिया। और उसी तरह-विना आहार लिये उलया वनको प्रयाण किया। अंतमें वहां निदान बंध करके अपने शरीरका परित्याग किया । ठीक ही है-कोप ही अनर्थ परंपराका कारण है ॥ ९१ ॥ निदान महित शरीरके छोड़नेसे महांशुक्र नामक दशवें स्वर्गको प्राप्त कर इंद्र तुल्य विभूतिका बारक देव हुआ । वहां इसकी सोलह सागरकी आयु हुई । इसकी लालसासे युक्त इंद्रियां स्वर्गीय अंगनाओंके देखने में ही लगी रहती ॥९२॥ विचित्र मणियोंकी किरणोंसे जिनसे कि समस्त दिशाओं के मुख मी चौध जाते हैं चंद्रमाकी किरणों के समूहकी कांतिका भी हरण करनेवाले, तथा जिसकी अनेक शिखरॉपर सफेद ध्वनाएं लगी १-एक महीना तक चारों तरइके (खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय) आहारके त्यांगको मासोपवास कहते हैं। "
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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