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________________ . · सत्रहवाँ पुगे । i २४३ इसके नेत्र चंचल है । देवाङ्गनाओं के नेत्र निर्निमेष होते हैं ||२५|| एक तो यह भूपति स्वयं ही स्वाभाविक रमणीयताका धारक था परंतु दूसरा कोई जिसकी समानता नहीं कर सकता ऐसी कांतिको धारण करनेवाली उस प्रियाको पाकर और भी अधिक शोभायमान होने लगा ! शरद ऋतुका चन्द्र वयं ही मनोहर होता है पर पौर्णमासीको पाकर क्या वह विलक्षण शोभाको नहीं धारण कर लेवा है ! ॥ २६ ॥ प्रियकारिणी भी अपने समान उस मनोज १ , पति को पाकर इस तरह दीप्त हुई निम तरह रतिं कामदेवको पाकर प्रकटमें दीप्त हो उठती है। यही बात लोकमें भी तो देते हैं कि दूसरा की समानता नहीं कर सकता ऐसा अत्यंत अनुरूप योग किसकी कांतिको नहीं दीप्त कर देता है ? || २७ ॥ मनोहर कीर्तिके "चारक इन दोनों वधूवरोंमें एक बड़ा मरी दोष था । वह यह कि अपने पैरोको प्रकाशमः सुमनसों (देवों या विद्वानों) के कार रखकर मी अर्थात् बड़े भारी बडी और विवेकी होकर भी दोनों ही कामदेवसे दररोज डरते रहते थे ॥ २८ ॥ इस प्रकार धर्म और अर्थ 'पुरुषार्थक अविरोधी काम पुरुषार्थ हो मी उप मृग यिनीके साथ निरंतर भोगता हुआ, और यशके द्वारा घाल बना दी हैं दिशाओको निश्न ऐसा वह राजा संरक्षण - शासन से समस्त पृथ्वीको 'हर्पित करता हुआ' कालातिपात करने लगा || २९ ॥ देवपर्या में जिसका जीवन छह महीना बाकी रहा है, जो -अनंतर मग ही संसार समुद्र पार करने के लिये अद्वितीय तीर्थ ऐसा तीर्थकर होनेवाला है उस देवराजेको पाकर देवगण चित्त लगा१- देखों सोलहवां सर्ग श्लोक ६३-६४ 1
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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