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________________ . . . . - 4 सत्रहवाँ सर्गः1 [ २४१ .. है) में अनुराग करनेवाली मी हैं और कलाधर ( शिल्ल आदिक कलाओंको धारण करनेवाले श्लेषके अनुसार दूसरा अर्थ चंद्रमा)को भी चाहनेवाली हैं। अपक्षमाता- (पक्षात रहित; दुसरा अर्थ पंखोंसे रहित) है तो भी प्रतीत सुक्यःस्थिति (निश्चित है पसियों में स्थिति जिसकी ऐमी दुसरा अर्थ-निश्चित है.समीचीन वय-उम्रकी स्थिति जिसकी ऐसी ) है.। सरस होकर भी रोग रहित है ॥१५॥ झरोखोंमें लगी हुई हरिमणियों-गन्नाओंकी, किरणोंसे मिलकर मकानों के भीतर पड़ी हुई सूर्यकी किरणों में नवीन अभ्यागत-आये हुए मनुष्यको तिरछे रक्खे हुए नवीन लम्बे वासका धोखा हो जाता है। १६ -11...इसः नगरमें यह एक दोष था कि रात्रिमें चन्द्रमाका उदय होते ही कामदेवसे पीड़ित होकर. प्रियके निवासगृहको जाती हुई युवतिः बीच रास्तमें, महलोंके ऊपर लगी हुई स्वच्छ चन्द्रकीन मणियोंके द्वारा कसित दुर्दिनसे मीन नाती हैं ॥ १८ ॥ 'नहाँकी कामिनियों के स्वच्छ कपोलमें रात्रिके समय चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब पड़ने लगता है। मालूम होता है कि मानों स्वयं चन्द्र अपनी कांतिकी समलाके तिरकारके लिये-स्मलताका ति.स्कार होता है इसलिये स्त्रियोंके मुखकी महान् शोभ.को लेनेके लिये आया है।॥ १६ ॥ इस. नगरमें सिद्धार्थ नामका राना निगास करता था । निाने आत्ममति और विक्रमके द्वारा अर्थ-प्रयोजनको सिद्ध कर लिा था। जिसके चरणकमलोंको बालसूर्य के प्रसारके समान ननीभूत राज.ओंकी। शिखाओं मुकुटों में लगे हुए अरुणरनों-नाओंकी किरणोंने स्पर्शित कर रखा था ।। २० ॥: निर्मल चन्द्रम की किरणोंके समान अंदार .
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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