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________________ ': पन्द्रहवाँ सर्ग।. ___ [ २२५ प्रशस्त और अप्रशस्त ऐसे दो प्रकारकी विहायोगति, शुभ, अशुभ, 'स्थिर, अस्थिर, सुस्वर, दुःस्वर, पर्याप्त, उच्छास, दुर्मग, प्रत्येक काय, अयशस्कीर्ति, अनादेय, निर्माण, नीचगोत्र, पांचप्रकारके शरीर बंधन, छह संस्थान, तीन शरीरके आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो गंध इन बहत्तर प्रकृतियोंको.अयोग गुगस्थानवाला जीव अंतसे पूर्वक समयमें नष्ट करता हैं ॥१७९-८३॥ और अयके समयमें वह जिनेन्द्र दो वेदनीय काँमें से एक मनुष्य आयु, मनुष्यगति, मनुष्य गत्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्तक, बस, बादर, तीर्थकर, सुभग, यशस्क्रीति, आदेय, उच्च गोत्र, इन तेरह प्रकृतियोंको युगपत नष्ट करता है ।। १८४-८५ ॥ दुर हो गई हैं लेश्या निसकी ऐसा . अयोगी शैलेशिता-ब्रह्मवयकी सामिताको पाकर अत्यंत शोभाको प्राप्त होता है सो ठीक ही है । रात्रिके प्रारम्भमें मेघोंकी रुकाघटसे दूर हुआ. पूर्ण शशी-चन्द्र क्या शोभाको प्राप्त नहीं होता है ! ॥ १८६ ।। अत्यंत निरंजन निहाम और उत्कृष्ट सुखको धारण करनेवाली तथा भव्य प्राणियोंको उत्कंठा बढानेवाली मुक्ति केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्वको छोड़कर बाकी के औषशमिकादिक भावोंके तथा भव्यत्वके अभाव होनेसे होती है ।। १८७|| इसके बाद सौम्य कोका क्षय हो नानके अनंतर वह मूर्ति रहित मुक्त नीव लोकके अंत तक ऊपरको ही जाता है । और एक ही समयमें मुक्ति श्री उसका आलिंगन कर लेती है ॥ १८८ ॥ पूर्व प्रयोग, असंगता-शरीरसे अलग होना, कर्मबन्धसे छूटना तथा उसी तरहका गतिस्वभाव, इन प्रकृष्ट नियमोंसे आत्माके ऊर्मगमनकी सिद्धि होती है ॥ १८९ ॥ तत्वैषी सत्पुरुषोंने ऊर्व.. १५ . . .
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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