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________________ .... पन्द्रहवाँ संर्ग [ २२३ अपने पूर्वकून काँके छूटनेको निर्जरा कहा है। वह दो प्रकारकी है-एक पाकजा दुमरी अपाकना । हे नरनाथ ! जिस तरह लोकमें वनस्पतियोंके फलदो प्रकार से पकते हैं, एक तो स्वयं काल पाकर और दूसरे योग्य उपाय-वगैरहके द्वारा। इसी तरह कर्म भी हैं। वे भी दो प्रकारस पते हैं देकर निर्माण होते हैं, एक तो कालके अनुमार, दुसरे योग्य उपायके द्वारा ॥१६६॥ सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत-छठे और सातवें गुणस्थानवाला, अनंतानुबंधी कपायका विसंयोजन करनेवाला, निमोहका क्षाक, चारित्रमोहका उपशमक, उपशांतमोह, चारित्रमोहका साक, क्षीणमोह, और जिनसयोंगी अयोगी। इन स्थानों में क्रमसे असंख्यातगुणी कर्मोंकी उत्कृष्ट निर्जरा होती है ।। १६.७ ।। इस प्रकार संवर और निराके निमितभूत दो प्रकारके श्रेष्ट तपका निरूपण किया । अब क्रमके अनुसार सुनने योग्य मेमनत्वका मैं वर्णन करूंगा सो तू एकाग्र चित्तसे उसको सुन ॥ १६८ ॥ । 'बंधक हेतुओंना अत्यंत अमाव होजानेपर, और निराका 5च्छी तरहसे संनिवान होनेपर समस्त कर्मोकी स्थितिका सर्वथा छूट जाना इसको जिनेन्द्र भगवान्न मोक्ष बताया है ॥ १६९ ।। समस्त मोहकर्मका पहले ही विनाशकर, क्षीण कपाय व्यपदेशसंज्ञा-नामको पाकर, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतरायको नष्ट कर केवलज्ञानको प्राप्त करता है ।। १७०॥ ... " असंयत सम्यग्दृष्टिं आदिक आदिके चार गुणस्थानों से किसी मी-गुणस्थानमें विशुद्धि युक्त जीव मोहकर्मकी सात प्रकृतियोंकामिथ्यात्व, मिश्र, सम्यत्व प्रकृति मिथ्यात्व ये तीन और अनंतानु
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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