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________________ : पन्द्रहवाँ सर्ग। . [ १९९ rinarianmmmirmiwwwwwwwwwwwwwin अपनेको या परको पीड़ा उत्पन्न करना, कपायोंका उत्पन्न होना, यतियोंकी निन्दा, क्लेशं सहित लिंग या बांका धारण करना इत्यादिक कंपाय वेदनीयः कमैके आत्रके कारण होते हैं ॥ ३१ ॥ 'दीनोंकी अति हसी करना, बहुतसा वित्रलाप करना, हमने का स्वभाव, नित्य धर्मका उपहासदिक करना इनको उदार-सर्वज्ञदेव हास्यवेदनीय कर्मक आत्राका कारण बताते हैं ॥३२॥ अनेक प्रकारकी क्रीड़ाओंमें तत्परता रखना, नोंमें तथा शीलों में अरुचि आदिक रखना, इसको सत्पुरुषोंने शरीरधारियों के रतिवेदनीय कर्मके आत्रका कारण बनाया हैं ॥ ३३ ॥ पाप प्रवृत्ति करनेवालों के साथ संगति करना, रति-प्रेमका विनाश, दुमरे मनुष्योंसे अरति प्रकट करना इत्यादिको प्रशस्त पुरुषोंने अरतिवेदनीय कर्मके आटे का कारण बताया है ॥३४॥ अपने शोकस चुर रहना या दुमरेके शो की स्तुति निंदा "आदि करना शोकवेदनीय. कर्मके आश्रवका कारण होता हैं ऐमा समस्त पदार्थोके जाननेवाले आर्य-आचार्य या सर्वज्ञ कहते हैं ॥ ३५॥ नित्य- अपने. मयरूप परिणाम रखना या दूसरेको भए उत्पन्न करना या किसीका वध करना इससे भगवंदनीय कर्मका आत्र होता है। आर्य पुरुष इस बातको जगतमें देखते हैं कि कारणके अनुरूप ही कार्य हुआ करता है ।। ३६ ।। सावुओंकी 'क्रिया या आचारविधिमें जुगुप्सा-लानि रखना, दूसरेकी निंदा करनमें उद्यत रहना.यां उस तरहका. स्वभाव रखना इत्यादिक जुगुप्यावेदनीय-कर्मक आस्त्रत्रके निमित्त हैं ऐमा आस्रवके दोषोंसे रहित यति कहते हैं ॥३७॥ असत्य भाषा, नित्य रति, दुमरेका अतिसंधान, रागादिककी वृद्धि इन बातोंको आय स्त्री वेदनीय कर्मके '
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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