SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पन्द्रहवाँ सर्ग ! [ १९७ प्रदेशी है, वह लोक और अलोकमें व्याप्त होकरर हा है ॥ १६ ॥ धर्म और अधर्म क्रम जीव और पुद्गलोंको गपन और स्थितिमें उनकारी है धर्म गमनमें उपकारी है और अधर्म द्रम स्थिति में उरकारी है। ये दोनों ही देग लोक में व्याप्त होकर रह रहे हैं । कालका लक्षण • वर्तना है | इसके दो भेद हैं- एक मुख्य काल दूसरा व्यवहार काल । : आकाश द्रव्यं मगह देने में उपकार करता है ॥ १७ ॥ रूप, स्पर्श, वर्ण (?), गंध, रस, स्थूलता, भेड, सुक्ष्मता, संस्थान, शब्द, छाया, उद्योत, आतप अधकार और बंध ये पुल द्रव्यके गुण-उपकार हैं ॥ १८ ॥ 'पदल दो प्रकारके हैं - एक स्कन्ध दूसरे अणु । स्कन्धोंको दो आदिक अनंत प्रदेशों से संयुक्त बनाया है। अणु अप्रदेशी- एक प्रदेशी होता | सभी स्कन्ध: मेद और संघातसे उत्पन्न होते हैं । अणु से • ही उत्पन्न होता है ॥ १९ ॥ जन्म मरणरूपी समृद्रमें निमग्न होत हुए जंतु को ये स्कंध को या उसके कारणभूत शरीर मन, वच नकी क्रिया झासोच्छ्ांस जीवन मरण सुख दुःख उत्पन्न करते हैं ॥ २० ॥ शरीर, वचन और मनके द्वारा जो कर्म - क्रिश- आत्मप्रदेश परिस्पंद होता है उसीको योग कहते हैं और उसीको सर्वज्ञ देवने आखा बताया है । वह पुण्य और पान दोनोंमें कारण होता है। इसलिये उसके दो भेद हैं- एक शुभ दूसरा अशुभ अर्थान .जो. पुण्यका कारण है उसको शुभ योग कहते हैं और जो पापका कारण है उनको अशुभ योग कहते हैं ॥ २१ ॥ आचार्योंने उस योगके दो स्वामी बताये हैं - एक कपाय सहिन दुसरा कपाय रहित । पहले स्वामीके सांपरायिक आंख होता है और दूसरेके ईर्यापथ •
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy