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________________ १८८ ] महावीर चरित्र 1. होती है ॥ १२ ॥ वह राजा स्वभावमय आत्मस्वरूप और उज्ज arrest तथा समस्त अणुत्रतों को पंथावत् धारण करता हुआ जैसा हर्षित हुआ तैसा दुःबाप्प दुः पाप्य राजाधिराजलक्ष्मी को पाकर मी हैंर्षित न हुआ ॥ १३ ॥ स्वरित्रोंके द्वारा शत्रुगणने स्वयं खिचे हुए आकर उसकी किंकरता धारण की। चंद्रमा की किरणोंक स -मान शुभ्र सत्रुषोंके गुण के समूह किसको विश्वास नहीं कर देते हैं ॥ १४ ॥ . 1 एक दिन सभागृह में बैठे हुए नरपतिके पास समाचार सुनाने चाला घड़ाता हुआ कोई सेवक आकर विना नमस्कार किये हो हर्षसे इस तरह बोला । अत्यंत हर्ष होनेपर कौन संचनन - सावधान रहता है || १५ || हे विनत नरेन्द्रक ! (नत्र बना दिया है राजा, ओंका समूह जिनसे) निर्मल कांतिनले उत्कृष्ट आयुर्योकी शाला में चक्र उत्पन्न हुआ है। वह कोटि सुर्योकी विम्बके समान दुःप्रेक्ष्य है। और उसकी यक्षोंके स्वामीगण रक्षा कर रहे हैं ॥ १६ ॥ वहीं पर • निकलती हुई मणियोंकी प्रमासे वेष्टित दंड रत्न और शरद ऋतु के आकाश समान आमाका धारक खड्ग रत्न उत्पन्न हुआ है तथ • चंद्रमा की चुतिके समान रुचिर श्वेत छत्र उत्पन्न हुआ है जो ऐस - मालूम पड़ता है मानों साक्षात् आपका मनोहर यश ही हों ॥१॥ कोषगृह - खजाने में फैलती हुई किरणों के समूहसे जिसने दिशाभाको व्याप्त कर दिया है ऐसी चू नामक मणि उत्पन्न हुई है । इमोक . साथ साथ तत्क्षणं किरण पंक्तिले प्रकाशित होनेशका काकीणी, रत्न हुआ है और हे भूपेन्द्र ! वृति- ांति से विस्तृत धर्मरत्न उत्पन्न हुआ है ॥ १८ ॥ पुण्यके फरसे आकृष्ट हुए मंत्री गृहपति :
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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