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________________ १६० ] महावीर चरित्र । वह सिंह मैं ही हूं। मैं इन्द्रमान सुखकर हूं। संसार में साधुओंके वाक्प किसकी उन्नति नहीं करते हैं ॥ ६७ ॥ जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था उसी इस सम्यक्त्वको आपके प्राइसे यथावत पाकर मैं तीन लोकके चूड़ामणिके मुकुटपनेको प्राप्त होगया हूँ। अतएब मैं निवृत्त - मुक्त - कृतकृत्य होचुका हूं ॥ ६८ ॥ वृद्धावस्यां ही जिसकी लहरें हैं, जन्म ही जिसका जल है, मृत्यु ही जिसमें मकर है, महामोह ही जिसमें आवर्त-भ्रमर है, रोग समूहके फनॉर्स जो चितकबरा बन गया है । उस संसारसमुद्रको आपके निर्म वाक्यरूप जहाजको प्राप्त करनेवाला मैं शीघ्र ही तर गया हूँ । अब इसमें कुछ भवोंका तर - किनाग़ बाकी रह गया है ॥ ६९ ॥ वह देव इस तरह कह कर, और बार बार उन दोनों मुनियोंकी पूजा कर, संसृति - संसार- दुनियरूपी पिशाची - चुड़ेलसे रक्षा करनेवाली मानो भस्म ही हो ऐसी उन मुनियोंके चरणोंकी धूलिको महानपरं अच्छी तरहं लगाकर अपने स्थानको गया ॥ ७० ॥ हारयष्टिके द्वारा शरद ऋतु के नक्षत्रपति - न्द्रमाकी किरणोंकी श्री - शोभा जिसके मुख पर पाई जाती हैं, जिसके हृदयके भीतर सम्यत्तवरूप संपत्ति रखी हुई है. ऐसा वह देव देवोंके अभीष्ट सुखको भोगता हुआ, प्रमादरहित होकर जिनपतिके चरणोंकी पूजा करता हुआ वहीं रहता हुआ ॥ ७१ ॥ " • इस प्रकार : अशग कविकृत वर्धमान चरित्रमें 'सिंह प्रायोपगमनं नामक ग्यारहवां सर्ग समाप्त हुआ । ܀܀
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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