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________________ AmAAMAANNN amnnamam ग्यारहवां सर्ग। [१५९ अपनी उस परम समाधिको, नहीं छोड़ा। जो क्षमावान् है वह विपत्तिपस्त होने पर भी मोहित नहीं हुआ करता ॥ ६१ ॥ चंद्रमाकी किरण समान धवल वह पूज्य या प्रशस्त मारान प्रशममें हृदयको लगाकर सूर्यके. किरणनालके तापके योगसे प्रतिदिन दिन पर दिन बर्फके गोलेकी तरह विलीन हो गया ॥ १२ ॥ जिन शासनमें लगी हुई है बुद्धि जिसकी तथा संमारके भयोंसे व्याकुल हुए उस सिंहने पूर्वोक्त रीतिसे एक महिना तक अचल ‘क्रियाके द्वारा-निश्चल रहकर अनशन धारण कर पापों और प्रणोंसे शरीरको छोड़ा ॥ ६३ ॥ उसी समय धर्मके फलसे सौधर्मस्वर्गमें जाकर व मनोहर विमानमें मनोहर शरीरको धारण करनेवाला हरिवन नामका प्रसिद्ध देव हुआ । सो ठीक ही हैसम्बत की शुद्धि किनको सुख देनेवाली नहीं होती ॥ १४ ॥ खूब जोरसे :: जय जय । ऐसा शब्द करनेवाले और आनंदसूचक बानों में कुशल-आनंदवाद्योंक बनानेवाले परिवारों के देवोंक द्वारा तथा मंगलवस्तुओंको निनने धारण कर रक्खा है ऐसी देवाङ्गनाओं के द्वारा उआया हुआ वह धीर इस तरह विचार करने लगा कि मैं कौन हूं और यह क्या है ॥६५॥ उसी समय अवधिज्ञानके द्वारा अपने समस्त वृत्तांतको जानकर हर्षसे पूर्ण है चित्तवृत्ति निसकी ऐसा वह देवं स्वर्गसें. परिवारके देव और देवियों के साथ साथ उस मुनियुगके निकट आकर और उनकी सुवर्ण कमलोंसे पूना करके वार बार प्रणाम कर इस तरह बोला ॥६६॥ .:: हितोपदेशरूपी बड़ी भारी.वर्त (मोटी रस्सी) के द्वारा अच्छी तरह बांध कर पापका कूामेंसे आपने जिसका उद्धार किया था
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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