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________________ AAVALUR .. .. . दसवा सग! । १४१ आयु गलती-वीतती है वैसे तैसे और मो श्वास लेना-जीना ही चाहता है। आत्माको विषयोंने अपने वशमें करके अशक कर डाला है तो भी इसकी उनसे तृप्ति नहीं होती ॥३५॥ निस तरह समंद्र हजारों नदियोंसे, अग्नि ढेरों ईधनसे चिरकाल तक मी संतुष्ट नहीं होती। उसी तरह कामसे विह्वल हुआ यह पुरुष कमी भीः विषयमोगोंसे संतुष्ट-तृप्त नहीं होता ॥३६॥ ये मेरे प्राण समान सहोदर माई है, यह इष्ट पुत्र है, यह प्रिय मित्र है, यह भार्या है, यह धन है, इस तरहकी व्यर्थकी चिंता करता हुआ यह विचार रहित जीव अहो निरर्थक दुःखी होता है ॥३७॥ यह . जीव अपने पूर्व जन्मके किये हुए कमोके एक शुभाशुभ फलको ही नियमसे.भोगना है.। अतएव देहधारियों-संसारियोंका अपनेस मिन्न न तो कोई स्वजन है और न कोई परजन है ॥३८॥ इन्द्रियोंके विषय इस प्राप्त हुए पुरुषको कालके वशसे क्या स्वभावसे ही नहीं छोड़ देते हैं. । अर्थात् य विषय तो ३ काल पाकर पुरुषको स्वमा से ही छोड़ देते हैं परन्तु यह आश्चर्य है कि वृद्धावस्थासे बिल्कुल दुःखी हुआ-मी तथा व विषय इसको छोड़ दें तो भी यह 'प्राणी स्वयं उनको नहीं छोड़ता है ॥ ३९ ॥. सत्पुरुष विपयोंसे उत्पन्न हुए : सुखकों प्रारम्भमें अशक्त-अपरिपूर्ण तथा मधुर और. मनोहर बताते हैं । किंतु परिपाक समयमें अत्यंत दुःखका कारण बताते हैं । इसका सेवन ठीक ऐसा है जैसा :कि अच्छी तरह पके हुए. इन्द्रायणके फलका खाना क्योंकि .. वह खानेमें तो अच्छा लगता है पर काम नहरका करता है ॥४॥ यद्यपि संसार-समुद्र अत्यंत दुस्तर है-सहन ही उसको कोई तर
SR No.010407
Book TitleMahavira Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhubchand Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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