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________________ तत्कालीन परिस्थिति। ऐसी अवस्थाको उत्पन्न करने में कारणभूत हठ-योगकी धारा भी थी। जैन शास्त्रोंसे हमें पता चलता है कि भगवान पार्धनाथके जमानेसे ही इसकी प्रधानता फैल गई थी। और विविध वानप्रस्थ पन्थ और आम्नाय प्रचलित हो गए थे। नि० त्रिपाठी इनके विषयमें कहते हैं कि " इतके ('हठ-योग) प्रवर्तकोंका विश्वास था कि कठिन तपस्या करनेसे उनको ऋद्धिसिद्धि प्राप्त हो जायगी, उनमे दैवी शक्तियोंका आविभाव होगा, और प्रकृतिकी शक्तियों उनके वश हो जायगी । उनका यह भी ख्याल था कि आत्मा और शरीरमें विरोध है, अर्थात् आत्मा शरीररूपी कारागारमें कैद कर दी गई हैअत इस बधनसे निवृत्त होते ही आत्मा स्वतंत्र हो जायगी । ज्यों ज्यों शरीर क्षीण होता जायगा, त्यों त्यों आत्माका उत्तरोत्तर विकास होता जायगा। इस विचारको लेकर ये लोग अपने शरीरको नाना प्रकारके तपोंसे नष्ट करने लगे। .... उत्साहपूर्ण पुरुषोंकी आत्माको न तो कर्मकाण्डों शान्ति मिली और न हठ तपश्चयामें ही परमानन्दका लाभ हुआ। ऐसे लोगोंको समाजका बनावटी जीवन कष्ट देने लगा। उनकी आत्माकी ज्वाला और अधिक भभकने लगी। इन सत्यके खोजियोंने अपने घरेवारसे और इस असत्य प्रिय संसारसे मुख मोड़कर जंगलकी तरफ प्रस्थान किया। ......ये लोग प्रचलित धर्मका प्रतिपादन और समर्थन न करते थे। प्रचलित प्रणालीकी त्रुटियोंसे असंतुष्ट होनेके कारण ये लोग चारो तरफ इन संस्थाओंकी बुराइयोको प्रकट करते थे, और समाजकी वर्तनान अवस्थाकी समालोचना करते हुए सर्व-साधारणके हृदयोंमें प्रच
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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